SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * अपनी छ: कारक शक्तियाँ सदा काल से अनावृत्त हैं । जब तक हम उसे मुक्ति-मार्ग की ओर उन्मुख नहीं करते, तब तक वह संसार-मार्ग की ओर उन्मुख होती रहती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अपनी ही शक्तियों से अपने दुःखमय संसार का सृजन हो रहा है । अब यदि हम जग जायें तो इन्हीं शक्तियों के द्वारा सुखमय मुक्ति की ओर प्रयाण कर सकें । यह तत्त्व आज के जीव समझते नहीं है । उन्हें समझाने लगें तो भी वे समझने के लिए तैयार नहीं होते । सब हवा में उड़ जाता हो वैसे लगता है। फिर भी मैं निराश नहीं होता क्यों कि मुझे तो एकान्त से लाभ ही है । मेरा स्वाध्याय होता है। * दूर स्थित भगवान भक्ति से निकट आ जाते हैं। भगवान निकट आये उसका विश्वास क्या ? भगवान जब निकट होते हैं तब मन की चंचलता कम हो जाती है, विषय-कषाय शान्त हो जाते हैं । इसीलिए महापुरुष प्रभु को प्रार्थना करते हैं - 'हे पुरुष सिंह रूप प्रभु ! आप मेरे हृदय की गुफा में सिंह के रूप में पधारे । आप हों तब मोह रूपी सियारों की क्या शक्ति है कि, वे यहां आने का साहस भी कर सकें ? * प्रभु को बुलाने हैं ? प्रभु आ जायें तो भी क्या उनके सामने देखने का भी अवकाश है आपके पास ? सत्य कहूं? प्रभु तो अन्तर में बसे हुए हैं ही, परन्तु हम ही उस ओर कदापि देखते नहीं । हमारे भीतर विद्यमान भगवान तो अनन्त काल से अपनी राह देख रहे हैं कि मेरा यह भक्त कब मेरी ओर देखे ? परन्तु हमें अवकाश नहीं है। * जल्दी-जल्दी सिद्धाचल की यात्रा करके आते हैं। सुबहसुबह दर्शन करके साढ़े सात बजे तो पुनः लौट आते हैं । साढ़े सात बजे वन्दन करने के लिए आने वालों को मैं कई बार पूछता हूं - क्या यात्रा कर आये ? उत्तर मिलता है - जी हां । मुझे विचार आता है - कब उठे होंगे ? कब गये होंगे ? [४१२momooooooooooooons कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy