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* कानजीभाई के मतवाले चाहे "मैं सच्चिदानंदी हूं" ऐसी बातें करते रहते हैं, परन्तु ऐसे ठिकाना नहीं पड़ेगा । यह व्यवहारमार्ग नहीं है। पहले 'दासोऽहं', उसके बाद 'सोऽहं' की साधना आती है ।
महोपाध्याय यशोविजयजी महाराज लिखते हैं - "उचित व्यवहार अवलंबने, एम करी स्थिर परिणाम रे; भाविये शुद्ध नय-भावना, पाव नासयतणुं ठाम रे..."
अर्थात् व्यवहार में निष्णात बनने के पश्चात् ही निश्चय में आगे बढ़ना है।
* वांकी में भुज के न्यायाधीश आये थे। साधना में कभी आगे बढ़े हुए थे । आनन्द की झलक भी प्राप्त की थी, परन्तु बाद में वे साधना चूक गये, परन्तु प्राप्त किये हुए आनन्द की वह झलक कैसे भूलते ? क्या खाये हुए रसगुल्लों का स्वाद आप भूल जायेंगे ?
आत्मा की झलक एक बार मिल जाये, फिर बार-बार वह झलक प्राप्त करने के लिए मन ललचायेगा ही।
उसे प्राप्त करने के लिए उसके पीछे पागल बन जाये, बारबार भगवान को पुकारे । दुनिया कहे - यह पागल है, अंधा है; परन्तु भक्त कहता है कि भले दुनिया पागल कहे, मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
उन न्यायाधीश ने मुझे अपने गुरु की कृपा के द्वारा प्राप्त हुई साधना की बात की ।
किसी भी धर्मानुरागी की बात तुरन्त ही काटनी नहीं चाहिये । उसे धैर्य से सुनें । उसमें रहे सत्यांश को प्रोत्साहित करें । बाद में उसे योग्य मार्ग बताना चाहिये। सीधा ही आक्रमण नहीं करना चाहिये।
___ आप मानते हैं "वे कुदेव हैं, कुगुरु हैं ।" आदि बातें नहीं करनी चाहिये ।
उन सज्जन को मैंने फिर प्रेम से समझाया । उन्हों ने मेरी बात मान ली । मूर्ति में श्रद्धा नहीं रखने वाला धर्म होते हुए भी उन्हों ने शंखेश्वर पार्श्वनाथ का फोटो ग्रहण किया और मंत्र भी ग्रहण किया । (कहे कलापूर्णसूरि - २00555555500Rsonam ४०७)