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आतम ज्ञाने ते टले, एम मन सहहिए ।"
सभी दुःख आत्मा के अज्ञान में से उत्पन्न हुआ है । एक आत्मज्ञान आ गया तो संसार का सभी दुःख मिट गया समझें । 'गुरु - कृपा के बिना आत्मज्ञान नहीं होता, ऐसा कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरिजी योगशास्त्र में लिखते हैं ।
नित्य बोला जाने वाला श्लोक
'अज्ञान तिमिरान्धानां यही बात कहता है । आप सबको यह श्लोक आता ही होगा । गुरु चर्म - चक्षु नहीं, चक्षु खोल देते है ।
परन्तु विवेक
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** आप स्वयं को तो जीव रूप में कदाचित् मानते हैं, परन्तु क्या दूसरे को भी जीव रूप में मानते हैं ? केवल मानने से नहीं चलेगा । उन पर आप कितना प्रेम करते हैं ? उस पर सब आधार है ।
आप जीव हैं, वैसे बिना आप ध्यान - मार्ग या
दूसरे भी जीव हैं, ऐसा स्वीकार किये भक्ति मार्ग में आगे नहीं बढ़ सकते । इसीलिए एक जीव के साथ का अमैत्री भाव समस्त जीवों के साथ का अमैत्री भाव है । एक जीव की हत्या छः जीवनिकाय की हत्या है ।
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इसी प्रकार से एक तीर्थंकर की भक्ति समस्त तीर्थंकरो की भक्ति है । इसीलिए एक जीव की रक्षा जिस प्रकार आपको ऊपर चढ़ा देती है, उस प्रकार एक जीव की हत्या आपको नीचे भी पछाड़ देती है ।
मैं बार-बार यह बात बलपूर्वक कहता हूं कि भगवान भले ही मोक्ष में गये, परन्तु जगत् को पवित्र बनाने की उनकी शक्ति यहां निरन्तर कार्यरत है । अपना ध्यान उस ओर नहीं जाता यही हमारा दुर्भाग्य है ।
* सिद्धशिला पर मिलने वाली मुक्ति तो बाद में मिलेगी, परन्तु उससे पूर्व यहीं मिलने वाली सामीप्य मुक्ति आदि चार मुक्तियों की ओर ध्यान केन्द्रित करना पड़ेगा ।
करोड़पति तो बाद में बनेंगे । उससे पूर्व ९९ लाख रुपये तो प्राप्त करने पड़ेंगे न ?
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ॐ कहे कलापूर्णसूरि