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नहीं मिली ? निगोद के अनन्त जीव, अधिकतर तिर्यंच, वेदना से तड़पते नारक - ये सब तो बाकात हो ही गये, परन्तु मनुष्यों में से भी कितनेक जीव निकल गये । अनार्य देश आदि में उत्पन्न यहां आने के पश्चात् भी श्रद्धा आदि से रहित ये सब भी निकल गये न ? तो बचे कौन ?
योगसार - कर्ता के शब्दों में कहूं तो 'द्वित्राः' (दो-तीन ही) बचे, क्योंकि वेष धारण करने वाले भी सब प्राप्त किये हुए नहीं होते । आत्मानुभवी श्रमण तो दो-चार ही होंगे । हमारा नम्बर उनमें क्यों नहीं लगे ?
* क्यों इस जीवन में भव-सागर तरने की कला न सीख लें? सागर में नाव तैर रही थी। कितनेक विद्वान अशिक्षित खलासी की हंसी उड़ा रहे थे । इतिहास, गणित, विज्ञान, भूगोल, खगोल आदि के विषय में अज्ञान देख कर वे क्रमशः तेरी चौथाई, आधी, पौनी जिन्दगी पानी में गई यह कहने लगे ।
तब सागर में तूफान आने पर खलासी ने पूछा, 'क्या आपको तैरना आता है ?'
सब एक साथ बोले - 'नहीं ।'
'तो आपका सम्पूर्ण जीवन पानी में गया' खलासी ने कहा । इतने में नाव टूट गई और सब डूब गये । खलासी तैर कर बच गया ।
अन्य सब सीखें, परन्तु धर्म-कला नहीं सीखें तो डूबना ही पड़ेगा । धर्म-कला सीखें और अन्य न आयें तो भी चिन्ता नहीं, भव-सागर तर जायेंगे ।
* वाहन में बैठते समय 'ड्राइविंग' करने वाले ड्राईवर पर जितना विश्वास है, उतना भी विश्वास अरिहंत पर कहां है ? यदि विश्वास हो तो क्या ऐसी चिन्ता होगी ?
बच्चा जितने विश्वासपूर्वक माता की गोद में सो जाता है, उतने विश्वास के साथ प्रभु की गोद में बैठ जाना है ।
माता की गोद में स्थित बालक को चिन्ता नहीं । भगवान के चरणों में रहने वाले भक्त को भी चिन्ता नहीं ।
* "आतम अज्ञाने करी, जे भव-दुःख लहिये; (कहे कलापूर्णसूरि - २0mmmmmmmmswwwwwwmom ४०५)