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INTRODODNAL
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अग्नि संस्कार, शंखेश्वर
२३-६-२०००, शुक्रवार आषा. कृष्णा-६ : पालीताणा
मिच्छत्तं वमिऊणं सम्मत्तंमि धणियं अहिगारो । कायव्वो बुद्धिमया, मरण-समुग्घायकालंमि ॥ १४९ ॥
* जीव जब अपने स्वरूप को पहचानता है तब ही सच्चे अर्थ में जीव कहलाता है ।
जीव होते हुए भी हम स्वयं को 'शरीर' मानते हैं । देह में आत्मबुद्धि नहीं टले तब तक 'जीव' कैसे ?
यह मानव-देह इसलिए मिला है कि देह में रहा देव पहचान सकें । देह में आत्मबुद्धि करके अनन्त जन्म व्यर्थ गये हैं । इस जन्म में देह में देव के दर्शन करने हैं ।
यह सम्यग्दर्शन हैं । जब तक यह प्राप्त न हो तब तक जीवन सफल नहीं गिना जाता ।
इस समय द्रव्य सम्यक्त्व आदि का आरोप करके वह दिया जाता है। गीतार्थ जानते हैं कि यह द्रव्य समकित है, परन्तु साथ ही साथ यह भी जानते हैं कि यह साहुकार है, भविष्य में दे देगा । इस समय चाहे समकित नहीं है, भविष्य में उत्पन्न कर लेगा ।
(कहे कलापूर्णसूरि - २00amonomooooooooooo0 ३९७)