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________________ यह दृष्टि खुल जाये तो चैत्यवन्दन आदि समस्त क्रियाऐं यान्त्रिक प्रतीत नहीं होगी, जड रूढ़ि प्रतीत नहीं होगी, परन्तु प्रत्येक क्रिया में जीवन्तता आये, कदम-कदम पर क्रिया करते समय आनन्द आये । भगवान का बहुमान हृदय में जम जाये तो समझ लें कि अपने समस्त शुष्क अनुष्ठान नवपल्लवित हो उठे हैं, अपना पतझड़ बसन्त में बदल गया । अपना मरु स्थल वृन्दावन बन गया । * मुक्ति- प्रयाण में हम कहां तक पहुंचे ? यदि यह जानना हो तो अपने गुणों की जांच करें। मार्गानुसारी के गुण है ? मित्रादृष्टि के गुणी हैं ? पाप करते समय भय लगता है ? कि आनन्द आता है ? गुणों के बिना सच्चे अर्थ में कदापि मुक्ति के मार्ग पर प्रयाण हो नहीं सकता । दोष तो कांटों के समान हैं, जो हमें मुक्ति - पथ पर चलने से रोक देते हैं । मार्ग में चलते समय कांटे भी चुभते हैं । (जघन्य विघ्न) मार्ग में चलने में ज्वर भी आता हैं । ( मध्यम विघ्न) मार्ग भूल भी सकते हैं । (उत्कृष्ट विघ्न) इन तीनों प्रकार के विघ्नों को पार करते-करते हमें मुक्तिनगर में पहुंचना है । केवल हमें ही नहीं चलना है, अपने साथ चलने वाले को सहायक भी बनना है । पीछे चलने वाला मार्ग भूल न जाये, अतः मार्ग में चिन्ह (→) करते हैं न ? हमें भी ऐसा कुछ करते-करते आगे बढ़ना है । हमारे पूर्वाचार्यों ने ऐसा किया है । इन ग्रन्थों में अन्य कुछ नहीं है । मुक्ति-मार्ग की ओर प्रयाण करते अपने पूर्वाचार्यों द्वारा किये गये चिन्ह हैं । आपकी भाषा में यदि कहूं तो ये 'माइल - स्टोन' हैं । पूर्वाचार्य कहते हैं शीघ्रता करो । प्रयाण में यदि विलम्ब हुआ तो धूप (भव - ताप) तप जायेगी, चलने में अधिक कष्ट पड़ेगा । (भव - भ्रमण के कष्ट) एक बार विहार में हम सायं समय पर पहुंच गये, परन्तु श्रावकों ने कहा, "सब आ गये हैं न ? कोई बाकी तो नहीं हैं कहे कलापूर्णसूरि २wwwwwwwwwwwww ३८९
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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