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सकता, जीवों के साथ भी अभेद कर नहीं सकता; हां, जड़ के साथ अभेद अवश्य किया है ।
भगवन् ! देह साथ का अभेद तोड़ो, चैतन्य साथ का अभेद जोड़ो ।
मन्दिर में भगवान के पास इसीलिए जाना है। केवल हाथ जोड़कर मन्दिर में से बाहर नहीं आना है । दर्शन ऐसे करें कि एक दिन हृदय में विद्यमान भगवान भी दिखाई दें । चौबीसो घंटे भगवान दिख सकें ।
* सम्यक्त्व के दो प्रकार हैं - व्यवहार एवं निश्चय ।
शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्तिकता - इन लक्षणों के द्वारा भीतर विद्यमान सम्यक्त्व प्रतीत हो । इसकी कमी तो सम्यक्त्वकी कमी समझे ।
ये पांच लक्षण हों तो समझ लें - सम्यक्त्व आ गया है। यह व्यवहार समकित है ।
देहाध्यास टूटे तो निश्चय समकित है । विवेकाष्टक (ज्ञानसार - पन्द्रहवां अष्टक) पढ़ने पर आपको उसका विशेष ख्याल आयेगा ।
सम्यक्त्व अर्थात् भीतर विद्यमान परम चेतना को प्रकट करने की तीव्र इच्छा । यही मोक्ष की इच्छा है। ध्येय के रूप में यदि यह जम जाये तो समझ लें कि शुद्ध प्रणिधान हो गया है । ___ तत्पश्चात् मोक्ष-मार्ग की साधना प्रारम्भ होगी ।
देह की सुविधा, अनुकूलता आदि का जितना विचार करते हैं, इसके लिए जितना बोलते हैं, उसकी अपेक्षा हजारवे भाग की बात भी आत्मा के लिए हम क्या कदापि करते हैं ? उपा. यशोविजयजी महाराज कहते हैं -
देहात्माद्यविवेकोऽयं, सर्वदा सुलभो भवे । भवकोट्याऽपि तद्भेद - विवेकस्त्वतिदुर्लभः ॥
- ज्ञानसार, १५-२ . देह-आत्मा का अभेद तो प्रत्येक भव में मिलता है, परन्तु भेदज्ञान करोड़ों जन्मों में भी दुर्लभ है।
आज के युग में आत्मा की बात ही करोड़ों योजन दूर ढकेल दी गई है। कहे कलापूर्णसूरि - २woman was
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