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भगवान का कार्य है - जगत् के जीवों को पवित्र बनाने का ।
नाम आदि चारों से भगवान समस्त जगत् को सतत पवित्र बना रहे हैं । मोह के राज्य की तरह भगवान का भी राज्य है। मोह का किला भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी से भी टूट नहीं सकता । इसीलिए अपने सभी सूत्रों में विविध रूप से भगवान व्याप्त हैं ।
लोगस्स में नाम रूप से । अरिहंत चेइआणं में स्थापना रूप से ।
नमुत्थुणं में द्रव्य और भाव अरिहंतों की स्तुति है। कोई ऐसा सूत्र नहीं होगा, जिसमें किसी न किसी रूप में भगवान न हों ।।
* मोह का आक्रमण विफल करने के लिए भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। मोह का आक्रमण अपने सामर्थ्य से विफल नहीं किया जा सकता । किसी समर्थ की शरण लेनी ही पड़ेगी । भगवानके अतिरिक्त अन्य कोई समर्थ नहीं है। इन समर्थ के चरण चिन्हों ने पकड़ लिये, उनका काम हो गया। ।
"प्रभु-पद वलग्या ते रह्या ताजा; अलगा अंग न साजा रे..."
__ - पू. उपाध्यायजी मोह एवं कषायों के कारण आपकी आत्मा त्रिविध ताप से जल रही है। दूसरे की तो ठीक, हमें अपनी आत्मा पर भी दया नहीं आती । दूसरे जलते हों तब तो दया आती है, तो स्वयं पर दया क्यों नहीं आती ?
मोह से जल रहे हैं ऐसा समझ में आये, तब ही सरोवर तुल्य अरिहन्त की शरण लेने की इच्छा होती है, साधु की शरण लेने की इच्छा होती है ।
"अहो ! अहो ! साधुजी समताना दरिया" आपकी शरण में कोई आये तो शान्ति मिलती है न ? क्या आपको स्वयं को यह विश्वास है ?
* मोह राजा ने भगवान एवं अपने बीच में ऐसा भेद किया है कि अभेद-भाव से भक्ति हो नहीं सकती ।
भगवान से कहें, "प्रभु ! आपके साथ मैं अभेद कर नहीं (३८६ 80mmooooooo000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)