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दिया जाता है । यहां सु-आमंत्रण, सु-प्रार्थना है; हृदयपूर्वक की गई प्रार्थना है ।
यहां अपनी शक्ति नहीं चलती । भगवान की शक्ति से ही यह सब सम्भव है । इसी लिए 'जयवीयराय' में लिखा -
'होउ ममं तुहप्पभावओ' प्रभु ! मुझे आपके प्रभाव से प्राप्त हो ।
हमारा अहंकार स्वयं पर इतना प्रबल रहना चाहता है कि किसी को मस्तक पर धरने के लिए तैयार नहीं होता ।
___ "प्रभु ! आपके प्रभाव से प्राप्त हो ।" ऐसी बात अहंकारहीन हदय ही बोल सकता है ।
* अनेकबार लोग कहते हैं - आपको प्रभु के प्रति जितना बहुमान (सम्मान) है, इतना हमें क्यों नहीं होता ।
मैं स्वयं भी सोचता हूं - 'बाल्यकाल से ही मुझे प्रभु से प्रेम क्यों हुआ ?' अवश्य पूर्व जन्म में भगवान का प्रेम उत्पन्न हुआ होगा । इसीलिए आपको कहता हूं - प्रभु को चाहना प्रारम्भ करो । आपकी साधना प्रारम्भ हो जायेगी । इस जन्म में साधना अपूर्ण रहेगी तो भी भवान्तर में यह साधना साथ चलेगी ।
मैं आपको यह सब इसलिए सिखा रहा हूं कि यह सब मुझे भवान्तर में साथ ले जाना है । दूसरों को दिये बिना अपने गुण सानुबंध नहीं बन सकते, भवान्तर में साथ चल नहीं सकते ।
विष के बीज बोते हैं। आर्यभूमि, उत्तम कुल, सत्संगति आदि प्राप्त करके जो शीतगर्मी सहन करने वाले चातक पक्षी की तरह भगवान का स्मरण करते हैं, वे चतुर हैं । अन्य तो स्वर्ण के हल में कामधेनु को जोतकर विष के बीज बो रहे हैं ।
[कहे कलापूर्णसूरि-२00amoooooomsonanno ३८३]