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पूज्यश्री का आशीर्वाद, पालिताना, वि.सं. २०५६
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हमें तीर्थ मिला है, यह तीर्थंकरो का उपकार है, परन्तु उपकार मानने मात्र से पूरा नहीं हो जाता । यह तीर्थं दूसरों को भी मिलता रहे, उसकी अविच्छिन्न परम्परा चले, उसमें हमें निमित्त बनना है । पूर्वाचार्यों ने इन जिनागमों तथा जिन-बिम्बों की रक्षार्थ अपने प्राणों की भी आहुति दी है, उन आगमों और प्रतिमाओं को कायम रखने के लिए क्या हमें पुरुषार्थ नहीं करना चाहिये ? आगमों एवं प्रतिमाओं की केवल सुरक्षा ही नहीं, आगमों के अनुसार जीवन जीने से, मूर्त्ति में भगवान के दर्शन करने से ही आगमों एवं प्रतिमाओं की सुरक्षा होगी । इनकी परम्परा चलेगी । * मैं चाहे जितना बोलूं, परन्तु आपके भीतर कितना आयेगा ? मैं बोलता हूं उतना नहीं, परन्तु जितना मैं पालता हूं, उतना ही आपमें आयेगा ।
२१-६-२०००, बुधवार
वै. कृष्णा - ४ : पालीताणा
पू.पं. जिनसेनविजयजी
हम में भी योग्यता होनी चाहिये न ?
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ऐसा कैसे कहा जा सकता है ?
उत्तर
मुझे भी अपनी समाधि के लिए सोचना है । मैं कहूं फिर भी सामने वाले का जीवन नहीं बदले तो मुझे किसलिए
३८४ कळकळ
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कहे कलापूर्णसूरि - २