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* हमारे संसारी कुटुम्बी शिवराजजी लुक्कड़ हमें गृहस्थजीवन में लटके के साथ कहते - अक्षय ! तुम दीक्षा ग्रहण करते हो ? क्या है दीक्षा में ? गृहस्थ-जीवन में रहकर क्या साधना नहीं हो सकती ? भगवान महावीर के आनन्द एवं कामदेव जैसे श्रावकों ने भी दीक्षा ग्रहण नहीं की थी । आप उनसे भी बढ़ गये ?
साधुओं को तो आप देखते हैं न ? दीक्षा अंगीकार करने के बाद क्या करते है ? परन्तु मैं दीक्षा ग्रहण करने के भाव में स्थिर रहा ।
साधु-जीवन में जो साधना हो सकती है वह गृहस्थ-जीवन में कैसे हो सकती है ?
* इस जीवन में निश्चय कर ही लो कि मुझे भगवान प्राप्त करने ही हैं । इसके बिना रहना ही नहीं है ।
"धुआंडे धीजें नहीं साहिब, पेट पड्या पतीजे..." ऐसा प्रभु को कह दो ।
प्रणिधान (निर्धार, दृढ संकल्प) पक्का होगा तो सिद्धि कहां जायेगी ? मोहराजा का यही कार्य है - आपके निर्धार को तोड़ डालना ।
दीक्षा ग्रहण की तब अपना ध्येय क्या था ? और आज ध्येय क्या है ? बदल तो नहीं गया न ? मोह राजा की चाल सफल नहीं हुई न ? भगवान की और गुरु की कृपा के बिना मोहराजा की चाल से बचा नहीं जा सकता ।।
आजका दिन तो अपूर्व है । नित्य वाचना ही सुनते हैं । आज तो भगवान स्वयं मिलने आये हैं जो हिमालय में प्रतिष्ठित होने वाले हैं । वाचना की बात का सीधा ही अमल हुआ ।
भगवान प्रति छ: माह के बाद (समुद्घात रूप में) मिलने के लिए आते ही हैं । हम कहां सम्मुख होते हैं ?
खिड़की खुली होगी तो सूर्य आयेगा ही ।। हृदय खुला होगा तो भगवान आयेंगे ही । हम हृदय को बन्ध करके पुकारते हैं - "भगवान पधारो ।"
परन्तु भगवान कहां आते हैं ? खिड़की बन्द हो तो सूर्य ( ३८०
कहे कलापूर्णसूरि - २