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________________ * आप सबमें से कदाचित् एक का भी जीवन-परिवर्तन न हो तो भी मुझे तो लाभ ही है । मुझे तो कमीशन मिलेगा ही क्योंकि मैं तो एजन्ट हूं । केवल भगवान की बातें आप तक पहुंचाने का ही मेरा कार्य है । * शुभ-गुरु तो मिले, परन्तु फिर क्या ? गुरु के वचनों की अखण्ड सेवा । पंचसूत्र में लिखा है - 'इन गुरु की सेवा से मुझे मोक्ष का बीज प्राप्त हो ।' 'होउ मे इओ मुक्खबीअंति ।' गुरु मिलते हैं परन्तु फलते हैं तब जब हम उनको मानें । न मानें तो गुरु-योग का कोई अर्थ नहीं है ।। एक शिष्य ने बारह वर्षों तक गुरु की सेवा की, त्वरित वेग से सेवा की, परन्तु गुरु ने अभी तक एक अक्षर भी सिखाया नहीं । एक बार रात्रि में सांप आया और कहने लगा - "आपके इस शिष्य के साथ मेरा पूर्व जन्म का वैर है । मैं उसका खून पीने के लिए आया हूं।" "आपको खून से ही काम है न ? मैं ही वह आपको दे दूं तो क्या नहीं चलेगा ?" सांप बोला - 'चलेगा ।' गुरु निद्राधीन शिष्य की छाती पर चढ़ बैठे, चाकू से थोडा शरीर काट कर सांप को खून पिलाया । सांप चला गया । दूसरे दिन गुरु ने पूछा, "उस समय तुम्हें क्या विचार आया था ?" "गुरु करते होंगे वह मेरे हित के लिए ही करते होंगे। उसमें दूसरा विचार करने का क्या होगा ?" शिष्य के प्रत्त्युतर से प्रसन्न होकर गुरु ने उसे अपनी कला सिखाई । यदि अपनी कोई ऐसी परीक्षा ले तो ? क्या उस परीक्षा में सफल होंगे ऐसा लगता है ? परीक्षा की बात जाने दें । किसी को परीक्षा लेने की इच्छा हो, ऐसा अपना जीवन हे क्या ? याद रखें, 'परीक्षा उसकी ही होती है, जो परीक्षा के लिए कुछ योग्य हो ।" (कहे कलापूर्णसूरि - २000000wooooooooooo ३७७)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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