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कषायों की मन्दता से लेश्याएं विशुद्ध बनती जाती है, गुण प्रकट होते जाते हैं, दोष नष्ट होते जाते हैं । गुण ही हमारे स्थायी
साथी हैं ।
हमारी कठिनाई यह है कि दोषों को हमने साथी मान लिये है।
दोष लिपटे हुए हैं यह तो ठीक है परन्तु वे दोष पुनः मधुर लगते हैं । हम बेडियों को आभूषण मानते हैं ।
* "मैं किसी का नहीं मानता, गुरु का भी नहीं ।" ऐसी स्वच्छन्द वृत्ति मोह की पराधीनता है । जिसने गुरु की पराधीनता छोड़ दी, उसने मोह की पराधीनता स्वीकार कर ली । मोह की पराधीनता में स्वतंत्रता के दर्शन करना महा-मोह है ।।
छोटी सी कला सीखने के लिए भी व्यवहार में गुरु को सम्पूर्ण समर्पण करना पड़ता है । समर्पण अधिक तो कलाज्ञान अधिक । अर्जुन किस लिये सब से अधिक होशियार हुआ? क्योंकि अर्जुन का गुरु-समर्पण सबसे उत्कृष्ट था । समर्पण अधिक तो ज्ञान अधिक।
व्यावहारिक ज्ञान सीखने के लिए भी इतनी सेवा करनी पड़ती है तो फिर आध्यात्मिक ज्ञान के लिए तो कहना ही क्या ? जिसने गृहस्थ-जीवन में माता-पिता की सेवा नहीं की वह दीक्षित होकर गुरु की सेवा करे यह असम्भव है । इसीलिए 'जय वीयराय' सूत्र में सर्व प्रथम 'गुरुजणपूआ' (माता-पिता आदि गुरुजनों की पूजा) की मांग की गई है। उसके बाद ही "सुहगुरुजोगो तव्वयणसेवणा आभवमखंडा" कह कर सद्गुरु के योग एवं उनके वचनों की अखण्ड सेवा की मांग की है ।
* माता-पिता की सेवा भी स्वार्थ से नहीं होती । अतः 'जयवीयराय' में फिर लिखा - 'परत्थकरणं च' मुझे 'परोपकारभाव' प्राप्त हो । इस प्रकार माता-पिता की भक्ति एवं परोपकार का भाव आने के बाद ही सद्गुरु का संयोग मिलता है। इसीलिए फिर लिखा - 'सुहगुरुजोगो ।'
* गुरु-कृपा के स्पर्श से कठिन कार्य भी सरल हो जाते हैं । एक बार अनुभव करके देखें । गुरु को समर्पित होकर अनुभव करके देखो । (३७६ mmmmmmmmmmmmmm कहे कलापूर्णसूरि - २)