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गुरु ही भगवान के साथ जोड़ते हैं, इसीलिए 'गुरु-बहुमाणो मोक्खो ।' ऐसा कहा गया है।
१५०० तापसों को पहले भगवान नहीं, गुरु मिले थे । गुरु के बहुमान ने उन्हें केवलज्ञान की भेंट दी । “ओह ! ऐसे महान योगी ! हमने वर्षों तक साधना की, फिर भी अष्टापद पर चढ़ नहीं सकते और ये खेल-खेल में ऊपर चढ गये । अहो ! आश्चर्य ! गुरु तो ऐसे ही बनाने चाहिये । ऐसे विचार से उन्हें गुरु के प्रति आदर-भाव उत्पन्न हो गया ।
प्रारम्भ में जीव बाह्य आडम्बर देख कर ही आकर्षित होते हैं । भगवान के अष्ट प्रातिहार्य इसीलिए होते हैं । उन्हें देखकर अनेक जीव तर जाते हैं । अन्यथा, अपरिग्रही एवं वीतराग के ये अष्ट प्रातिहार्य एवं ३४ अतिशयों का ठाठ क्यों ?
परन्तु तीर्थंकरो की विभूति का अनुकरण हमसे नहीं होता । सोने-चांदी की ठवणी रखकर आडम्बर नहीं रख सकते । रखने गये वे गये । आचार्य रत्नाकरसूरिजी की चांदी की ठवणी देखकर एक दृढ धर्म व्यक्ति ने पूछा, "भगवन् ! गौतमस्वामी स्वर्ण की ठवणी रखकर या चांदी की ठवणी रखकर क्या व्याख्यान देते थे? आचार्य तात्पर्य समझ गये । दूसरे दिन उन्होंने परिग्रह का विसर्जन किया ।
भगवान की बात अलग है, अपनी बात अलग है ।
गौतम स्वामी की बाह्य लब्धि से प्रभावित १५०० तापसों ने दीक्षा अंगीकार की और अन्त में वे केवली बने ।
१५०० तापसों के पारणे के लिए गौतम स्वामी केवल एक पात्र खीर लाये परन्तु किसी को यह विचार नहीं आया कि इतनी सी खीर से तो सबके तिलक भी नहीं हो सकते, तो पेट कैसे भरेगा ?
सभी तापस इतने समर्पित थे कि किसी के मन में ऐसा विचार नहीं आया । इस समर्पण के प्रभाव से ही ५०० तापस तो खीर खाते-खाते ही केवली बन गये । इसे कहते हैं - 'गुरु बहुमाणो मोक्खो ।'
मारवाड़ में बिच्छु को पकड़ने के लिए चीमटे और बड़े सांप (३७४ 600 GB GB GOISSES 666 कहे कलापूर्णसूरि - २)