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पालीताणा, वि.सं. २०५६
१९-६-२०००, सोमवार
आषा. कृष्णा - २ : पालीताणा
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भगवान की कृपा से ही मुक्ति का मार्ग मिल सकता है और फल सकता है । सतत बोला जाने वाला 'देव-गुरु- पसाय' इसी तत्त्व को उजागर करता है ।
उत्तम कार्य किया चाहे हमने, परन्तु कराया भगवान ने । उत्तम कार्य का कर्तृत्व 'स्व' पर न डालकर भगवान पर रखने से कर्तृव्य का अभिमान नहीं आता । किसी भी गुण या कला की प्राप्ति में भी यही मानें । समस्त गुणों के स्वामी भगवान हैं । उनकी जाने-अजाने हुई भक्ति से ही अमुक अंशों में हम में गुण आये हैं । वे गुण प्राप्त होने पर भगवान को कैसे भूल सकते हैं ? गुण बाद में आते हैं। उनसे पूर्व गुणानुराग आता है, जो भगवान की कृपा से ही आ सकता है । गुणों का सम्मान अन्ततोगत्वा सर्वाधिक गुणी भगवान का ही सम्मान है ।
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सभी अनुष्ठान / क्रिया-काण्ड तीर्थंकरो के प्रति सम्मान उत्पन्न कराने के लिए ही हैं । यदि सम्मान - बहुमान उत्पन्न नहीं होता हो तो समझ लें कि अनुष्ठान सफल नहीं होंगे ।
गुरु का यही कार्य है आपको प्रभु के रागी बनाना । (कहे कलापूर्णसूरि २
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कळक ३७३
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