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प्रकार से साधक दूसरा सब करे परन्तु प्रभु का बहुमान न करें तो कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेगा । महोपाध्याय यशोविजयजी म.सा. जैसे कहते हैं -
"प्रभु-पद वलग्या ते रह्या ताजा; __ अलगा अंग न साजा रे..."
"तुम न्यारे तब सब ही न्यारा..." . ऐसे सब उद्गार आपको कदम-कदम पर देखने को मिलेंगे। हृदय में प्रभु के प्रति पूर्ण बहुमान (सम्मान) के बिना ऐसे उद्गार निकल ही नहीं सकते ।
उपा. यशोविजयजी म.सा. जैसों के चित्त में भगवान बसते थे ।
आपके हृदय में कौन बसता है ? कभी आत्म-निरीक्षण करें । "चित्त कौन रमे ? चित्त कौन रमे ? मल्लिनाथ विना चित्त कौन रमे...?"
कवि के ये उद्गार अपने हृदय के उद्गार बनें, ऐसी अपनी साधना क्यों न बनें ?
__ मेरे सात अज्ञान १. मैं सर्वोपरि चैतन्य का अंश हूं, वह मैं नहीं जानता । २. मैं अहं में भरा हुआ हूं, वह मैं जानता नहीं हूं। ३. मुझे नाम-रूप अत्यन्त प्रिय है, परन्तु वस्तुतः वही दुःख-दायी ___ है, वह मैं नहीं जानता । ४. दृश्यमान जगत् ही मुझे सत्य प्रतीत होता है । ५. अदृश्यमान विश्व कैसा होगा ? उसका मैं कदापि विचार नहीं
करता । ६. मैं शरीर हूं - इसी ध्यान में मैं राचता रहता हूं । ७. जगत् के जीवों के साथ मेरा सम्बन्ध में भिन्न मानता हूं।
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