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________________ विद्या-विनय को स्थायी रखनेवाला भी विनय है। यदि विनय चला जाये तो आगे के गुण मिले हुए हों तो भी चले जाते हैं । "जोग कर लें, पदवी ले लें, फिर गुरु-गुरु के रास्ते और मैं अपने रास्ते । गुरु को कौन पूछता है ?" यह विचार अविनय का द्योतक विनय-विवेक पूर्वक आया हुआ वैराग्य ही ज्ञान-गर्भित होता * इस जगत् की सबसे बड़ी सेवा कौन सी है ? अपने निमित्त से असंख्य जीव पल-पल त्रास अनुभव करते हैं । इस त्रास में से जीवों को छुड़ाना ही इस संसार की बड़ी सेवा है। हम एक मोक्ष में जायें तो अपने निमित्त से असंख्य जीवों को होने वाला त्रास रूकता है । यह भी इस जगत् की महान् सेवा एक गुण्डे ने किसी चिन्तक को पूछा, "मैं समाज की किस प्रकार सेवा करूं ?" "आप किसी के आड़े न आये यह भी समाज की बड़ी सेवा गिनी जायेगी । आप शान्त बैठे रहो तो भी महान् सेवा गिनी जायेगी।" चिन्तक का यह उत्तर मुक्ति के परिप्रेक्ष्य में विचारणीय है । हमारा जीवन सतत दूसरों को त्रास रूप होता आया है । यह त्रास तब ही रूक सकेगा । यदि हम मोक्ष में जायें । * भगवान का बहुमान-सम्मान मोक्ष का बीज है । छोटे से बीज में से विशाल घटाटोप बरगद बनता है । लूणावा में एक बरगद का वृक्ष है । वह इतना विशाल है कि किसी दीक्षा आदि के प्रसंग पर मण्डप की आवश्यकता ही न पड़े । उसके नीचे अनेक दीक्षाएं हो चुकी हैं । एक छोटे बीज में से विशाल बरगद बनता है, उस प्रकार प्रभु के सम्मान रूप बीज में से साधना का विशाल वृक्ष तैयार हो जाये । इसीलिए मैं इस बीज पर बल देता हूं। किसान दूसरा सब करे परन्तु बीज यदि न बोये तो कुछ प्राप्त नहीं करता । उसी (कहे कलापूर्णसूरि - २ 6 6 6 6 6 6 6 6600 6600 ३६५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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