________________
अग्नि संस्कार, शंखेश्वर
१८-६-२०००, रविवार आषा. कृष्णा द्वितीय-१ : पालीताणा
* "मैं ही साधना करूं, दूसरे सब चाहें यों ही रहें । मैं ही अकेला प्राप्त करूं, पढ लूं, दूसरे चाहे वैसे ही रहें ।" यह कनिष्ठ भावना यहां नहीं होनी चाहिये । यहां तो ऐसी विशाल भावना हो कि हृदय में सबका समावेश हो ।
नयविजयजी म.सा. ने यह विचार नहीं किया कि मैं नहीं पढ़ा तो मेरा शिष्य क्यों पढ़े ? नहीं, उन्होंने अपने शिष्य को (यशोविजयजी को) पढ़ाकर अच्छी तरह तैयार करने के लिए काशी तक विहार किया ।
ऐसी उदात्त भावना इस जिन-शासन की नींव में है ।
आगे बढ़कर समस्त जीवों का कल्याण इस जिनशासन में समाविष्ट है । इस बुनियादी विचार पर ही जैन लोग पांजरापोल आदि चलाते हैं ।
* पू. सागरजी, पू. नेमिसूरिजी, पू. प्रेमसूरिजी के समय में संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों का अध्ययन करनेवाले फिर भी थे । आजकल यह अध्ययन अत्यन्त कम हो गया है।
हम यदि भगवान के आगमों का अध्ययन नहीं करेंगे तो कहे कलापूर्णसूरि - २6666555 5 55500 ३६७)