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________________ उस प्रकार हम भले ही कर्म से घिरे हुए हों, सिद्ध भगवान अपने भीतर विद्यमान पूर्णता की चमक ही देख रहे हैं । चाहे वह चमक इस समय कर्म से आच्छादित हो, हम नहीं देख सकते हों, परन्तु ज्ञानी तो देखते ही हैं । __ हम दूसरे को पूर्ण नहीं देख सकते, क्योंकि हम स्वयं अपूर्ण हैं । अपूर्ण दृष्टि अपूर्ण ही देखती है । पूर्ण दृष्टि पूर्ण ही देखती हमें अपूर्णता दिखाई देती है जो हमारे भीतर विद्यमान अपूर्णता बताती है । जीव अपूर्ण प्रतीत होते हैं, जो हमारे भीतर कषाय पडे हुए होने की सूचना देते हैं । जो कषाय हमें संसार में जकड़ कर रखते हैं, जीवों के प्रति प्रेम नहीं होने देते, उन कषायों पर प्रेम या विश्वास कैसे कर सकते हैं ? शास्त्रों में उल्लेख है - अणथोवं वणथोवं अग्गिथोवं कसायथोवं च । न हु भे वीससिअव्वं थोवंपि हु तं बहु होइ ॥ यह नियुक्ति की गाथा है । नियुक्तिकार का कथन है कि थोड़ा भी ऋण, थोड़ा भी व्रण, थोड़ी भी आग अथवा थोड़ा भी कषाय - इन सबका आप भरोसा न करें । थोड़ा होते हुए भी वह बहुत हो जाता है । थोडा ऋण भी ऊपर नहीं रखना चाहिये । बढ़ते-बढ़ते वह कितना हो जाये, इसका भरोसा नहीं । एक सज्जन ने चार आने (पच्चीस पैसे) व्याज पर लिये। शरत इतनी थी कि प्रति वर्ष दुगुना देना होगा । चौबीस वर्ष व्यतीत हो गये । हिसाब किया तब पता लगा कि घर की छत के केलू (नलिये) भी बेच दिये जायें तो भी ऋण चुकाया नहीं जा सकता उतना कर्जा हो गया । दो करोड़ से भी अधिक रूपये हो गये । क्या आपके मन में यह विचार आता है कि आत्मा के गुणों के अतिरिक्त कोई भी पदार्थ उपयोग में लेते है उसका ऋण चुकाना पड़ेगा ? पुद्गल अपने बाप की वस्तु नहीं है। पुद्गल से ही शरीर, वचन, मन, मकान, धन आदि बने हुए (कहे कलापूर्णसूरि - २00000000000000000 ३६३)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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