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में एवं नाम के रूप में तो गुरु उपस्थित हैं । उनके प्रभाव से मैं इन पंक्तियों को समझा हूं। हम गुरु की अनुपस्थिति के विषय में सोचते हैं, परन्तु उनकी अनुपस्थिति कदापि होती नहीं है । ये स्थापनाचार्य सुधर्मा स्वामी से लगाकर अनेक - अनेक गुरुओं के प्रतीक हैं । वे सामने हैं । फिर गुरु की अनुपस्थिति कैसी ?
* कषायों का तनिक भी विश्वास करने योग्य नहीं है । हम तो क्या, अनन्त १४ पूर्वधर, जो कभी ग्यारहवे गुणस्थानक पर होते हैं, वे भी कषायों पर विश्वास नहीं कर सकते । अनन्त १४ पूर्वधर आज भी निगोद में है, वे इसी कारण से हैं । वे गफलत में रह गये और फंस गये । थोड़े से असावधान बनो, तब मोहराजा आपको फन्दे में लेने के लिए तैयार ही है ।
आग लगी हो तब आप क्या करते हैं ? 'फायर ब्रिगेड' की प्रतीक्षा करते हैं या पानी आदि जो मिल सके उससे आग बुझाने का प्रयत्न करते हैं ?
कषाय भी आग ही हैं । उपमितिकार ने तो क्रोध का नाम ही वैश्वानल दिया है । वैश्वानल अर्थात् अग्नि ! अग्नि का तनिक भी भरोसा नहीं किया जा सकता तो क्रोध आदि कषायों का भरोसा कैसे किया जाये ? बाहर की आग तो लाखों-करोंड़ो द्रव्य-सम्पत्ति को ही जलाती है, परन्तु ये कषाय तो आत्मा की अनन्त गुण सम्पत्ति ही जला कर राख कर डालते हैं ।
क्रोधाग्नि को बुझाने के लिए समतारूपी पानी चाहिये । * विनय से विद्या मिलती है ।
विद्या से विवेक मिलता है । विनयपूर्वक प्राप्त की गई विद्या विवेक प्राप्त कराती ही है। विवेक अर्थात् स्व-पर का पृथक्करण करने की शक्ति । 'स्व' कौन ? 'पर' कौन ? यह बात विवेक शक्ति से ज्ञात होती है। यह समझने के लिए ही उपा. यशोविजयजी म.सा. ने 'ज्ञानसार' का पंद्रहवाँ अष्टक खास विवेक पर ही बनाया है ।
विवेक ही आपको क्रोधाग्नि से दूर रखता है । वह सिखाता है - कि अग्नि की उपेक्षा करो तो दूसरे का ही घर जलेगा ऐसा नहीं है, आपका भी घर जलेगा । यदि क्रोध की उपेक्षा करोगे कहे कलापूर्णसूरि - २
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