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अभिमान पूर्वक का ज्ञान तो अवरोधक है । योगोद्वहन से यह ही सीखना है। प्रत्येक बार आने वाले सात खमासमण विनय के ही सूचक हैं ।
योगोद्वहन कराने वाले भी स्वयं कराते हों ऐसा नहीं है परन्तु 'खमासमणाणं हत्थेणं' पूर्व के महान् 'क्षमाश्रमणों के हाथों से' मैं कराता हूं, यह मानते हैं ।
* पाटन में पू. मानतुंगसूरिजी ने कहा था - इन ४५ आगमों को न भूलें । हमें अनेक संकल्प भी कराये थे । आज हमारी दशा विकट हो गई है। अन्य सब जंजाल इतने बढ़ गये हैं कि आगम एक ओर ढकेल दिये गये हैं ।
* जामनगर में पंडित व्रजलालजी हमें पहले 'न्याय' का अध्ययन कराते थे (वि. संवत् २०१८) । सर्व प्रथम जैन न्याय का अध्ययन ही करना चाहिये । प्रथम से ही जैनेतर न्याय का अध्ययन कर लेने से उनका ही पक्ष हमारे मस्तिष्क में सत्य के रूप में बैठ जाता है ।
__ अतः मैंने सर्व प्रथम जैन न्याय का ही अध्ययन किया । उसके बाद षड्दर्शन समुच्चय आदि ग्रन्थों का अध्ययन किया । 'स्याद्वाद रत्नाकर' भी प्रारम्भ किया । प्रारम्भिक पाठ में ही पंडितजी को भी अनेक पंक्तियाँ समझ में नहीं आई । जब पंडितजी को भी अर्थ समझ में नहीं आया तो मुझे तो कैसे समझ में आता?
परन्तु भगवान की प्रतिमा मेरे सामने थी । स्थापना गुरु मेरे सामने थे । मैंने उन्हें याद किया, उनको वन्दन किया ।
(जिन्हों ने मूर्ति छोड़ी उन्होंने बहुत कुछ छोड़ दिया है। इस काल में तो मुझे स्थापना गुरु से और स्थापना भगवान से ही मिला है। मुझे इसका अनेक बार अनुभव हुआ है । ध्यानविचार के पदार्थों में अनेकबार नवीन स्फुरणा हो तब मैं इन समस्त पदार्थों को लिख सके ऐसे कल्पतरुविजय से लिखवा लेता ।)
____ 'स्याद्वाद रत्नाकर' की कठिन पंक्तियां मुझे समझ में आ गई। दूसरे दिन मैंने पंडितजी को कहा तब वे स्वयं भी चकित हो गये। उन्हों ने कहा - 'किसको पूछा ? आपके गुरुदेव तो यहां हैं नहीं।'
मैंने कहा - देह रूप में चाहे यहां नहीं है, स्थापना के रूप (३५८Momonomomwwmoms soo कहे कलापूर्णसूरि - २)