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दुनिया की दृष्टि में जो चतुर बनता है वह अपनी ही आत्मा को ठगता है। उपा. प्रीतिविजयजी ऐसे नहीं थे। तथाकथित चातुर्य, गूढ़ता आदि अपने ही शत्रु हैं ।
भोले व्यक्ति को भले ही कोई ठग जाये, परन्तु इससे उसका कुछ बिगड़ता नहीं है । अन्त में तो ठगने वाले का ही बिगड़ता
चन्दन को कोई घिस डाले, छील दे अथवा जला दे परन्तु वह सुगन्ध या शीतलता कदापि नहीं छोड़ता; उस प्रकार सज्जन भी अपनी उत्तम प्रकृति, दूसरे को सुख प्रदान करने का अपना स्वभाव कदापि नहीं छोड़ता ।
स्व. उपाध्यायजी में वेयावच्च का सर्वोत्तम गुण था । जीवन में कितनों को उन्हों ने समाधि प्रदान की ?
गुरुमहाराज की आज्ञा से पं. मुक्तिविजयजी म.सा. की सेवा में वर्षों तक रहे । बाद में रत्नाकरविजयजी, देवविजयजी आदि की भी सेवा की ।
सेवा करनेवाले की सेवा होती ही है। उन्हें कोई न कोई सेवा करनेवाला मिल ही जाता है। भले ही उनको कोई शिष्य नहीं था, पर इसकी उन्हें कोई चिन्ता नहीं थी।
उनके ऐसे जितने गुणों को याद करें उतने कम है।
हम सात-आठ वर्षों तक तो दक्षिण में थे । इतने वर्षों तक यहां रहनेवाले मुनियों ने उनकी जो सेवा की है, वे भी धन्यवाद के पात्र हैं।
यदि कोई सेवा का कार्य स्वीकार न करे तो गच्छ की व्यवस्था सुचारु रूप से कैसे हो सकती है ?
सेवा तो अप्रतिपाती गुण है। हम सेवा नहीं करें तो हमारी सेवा कौन करेगा ? क्या हम कदापि वृद्ध नहीं होंगे ? क्या हम रोगी (बीमार) नहीं बनेंगे ?
हम जितनी समाधि दूसरे को देंगे, उतनी ही समाधि हमें मिलेगी। दूसरे को असमाधि प्रदान करने वाला अपनी ही असमाधि को रिझर्व करता है । आप यह बात कदापि न भूलें ।
आपके पास जो मन, वचन, काया आदि की शक्ति है, वह
(३५२Booooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)