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* मैं करूं वैसे आपको नहीं करना है । मैं नौकारसी करूं तो आपको भी करने की ?
नौकारसी तो मेरी अभी ही प्रारम्भ हुई है।
दीक्षा ग्रहण करने के समय तो अभिग्रह किया था - सदा एकासणे ही करने ।
उपवास, छठ, अट्ठम या अट्ठाई के पारणे में भी सदा एकासणा ही करता था । तदुपरान्त गोचरी लानी, लूणे निकालना आदि कार्य भी स्वयं ही करता था ।
पू.पं. भद्रंकरविजयजी महाराज ने कहा, 'आयु बढ़ने पर शरीर घिसता है। आपको अन्य कार्य भी करने हैं । अतः यह एकासणे का नियम जड़तापूर्वक न पकड़े ।"
उन गीतार्थ पुरुष की बात मैंने स्वीकार की । यद्यपि तत्पश्चात् भी वर्षों तक एकासणे ही शुरु रहे ।
___ एकासणे करने से कितना समय बच जाता है । अध्ययनअध्यापन आदि के लिए भी पर्याप्त समय मिलता है ।
समय ही हमारा जीवन है । समय बिगाड़ना अर्थात् जीवन बिगाड़ना ।
जो महात्मा मुझे डाक आदि के द्वारा, सेवा आदि के द्वारा सतत सहायक बनते हैं, उन महात्माओं का आप समय न बिगाड़ें। संकेत से समझ जायें । मैं चाहे कुछ नहीं कहता, परन्तु मेरे मौन में भी कुछ संकेत होता है, जिसे आप समझ सकते होंगे ।
* 'भक्ति' हो वहां जाने की इच्छा होती है, इच्छित वस्तु प्राप्त होती हो वहां मन होता है । इससे हमारे भीतर विद्यमान रसना की लोलुपता ज्ञात होती है। रसना की लोलुपता से युगप्रधान आचार्य श्री मंगु को भी गटर का भूत बनना पडा था, जिसे हम जानते हैं ।
विगई हमें बलपूर्वक विगति (दुर्गति) में ले जाती हैं - यह शास्त्रकारों की मान्यता है, मेरी नहीं । आप यह न समझें कि मैं आपके आहार में विघ्न डाल रहा हूं। मेरा नहीं, शास्त्रकारों का यह कथन है।
ब्रह्मचर्य के पालनार्थ विगई-त्याग की तरह अति आहार भी वर्जित गिना गया है । अधिक आहार से स्वास्थ्य भी बिगड़ता है । फिर डाक्टर भी बुलाना पड़ता है । अनुभवियों का कथन है कि (३२४ 0000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)