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________________ जाना पड़ता है । यदि भगवान का ऐश्वर्य प्राप्त करना हो तो भक्त को भगवान में मिल जाना पड़ता है । जिस पल हमारी आत्मा परमात्मा के साथ मिल जायेगी, उसी पल आनन्द का अवतरण होगा । प्रति पल असीम आनन्द की अनुभूति ही भगवान में धुल-1 -मिल जाने का चिन्ह है । या तो भगवान में मिल जाओ, या तो संसार में मिल जाओ । भगवान में नहीं मिलते तब आप संसार में मिलते ही हैं, मिले हुए ही हैं, यह न भूलें । ब्रह्मचर्य का सही अर्थ होता है प्रभु की चेतना में चर्या करना । प्रभु ही ब्रह्म हैं । उनमें चर्या करना ही ब्रह्मचर्य है । और सत्य कहूं ? प्रभु मिलने के बाद ही, आप वास्तविक अर्थ में ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते हैं । प्रभु का रस आपको ऐसा मधुर लगे कि जिसके समक्ष कंचन - कामिनी आदि प्रत्येक पदार्थ आपको नीरस लगे । एक प्रभु ही केवल आपको रसेश्वर प्रतीत हो, रसाधिराज प्रतीत हो । उपनिषदो में कहा हैं 'रसौ वै सः' अपनी आत्मा रसमय है । उसे यदि प्रभु में रस प्रतीत न हों तो संसार में रसलेने का प्रयत्न करना ही है । अपनी चेतना को प्रभु के रस से रससिकत करना ही जीवन का सार है । अपने जीवन की करुणता तो देखो । केवल एक प्रभु के रस के अतिरिक्त अन्य सभी रस उसमें भरपूर हैं । क्या आपको लगता है कि इससे जीवन सफल हो जायेगा ? कह निसिज्जिदिय कुडिंतर पुव्व कीलिअ पणीए । अइमायाहार विभूसणा य नव बंभचेर गुत्तिओ ॥" "वसहि (१) स्त्री संपृक्त वसति, (२) स्त्री कथा, (३) स्त्री बैठी हो वहां ४८ मिनिट के अंदर बैठना, (४) स्त्री के अंगोपांग देखना, (५) पर्दे के पीछे से दंपती की बातें सुननी, (६) पूर्व क्रीडा का स्मरण करना, (७) स्निग्ध आहार का सेवन करना, (८) अधिक आहार लेना, (९) शरीर, वस्त्रों आदि की टापटीप करना । इन नौ का त्याग करने से ही नौ गुप्तियों का पालन होगा । प्रभु में रस जगे तो ही इन नौ गुप्तियों का पालन सहज ही हो सकता है । ( कहे कलापूर्णसूरि २ कwww - OOOOळ ३२३
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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