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भाग्य चाहिये । सरोवर में चाहे जितना पानी नजर के सामने ही दिखाई दे, परन्तु आप अपने मटके के अनुरूप ही ले सकते हैं ।
एक भगवान को आप ऐसे पकड़ लें कि जीवन की किसी भी क्षण में आप उन्हें भूल न सकें । आप भगवान को पकड़ोंगे तो सब पकड़ मे आ जायेगा । यदि भगवान छूट जायेंगे तो सब कुछ छूट जायेगा ।
"प्रभु-पद वलया ते रह्या ताजा ।
अलगा. अंग न साजा रे ॥" प्रभु-भक्ति में रूकावट डालने वाला अहंकार है ।
"मैं दूसरे से कुछ विशेष हूं। मेरे भीतर बुद्धि-कौशल है अथवा प्रवचन कौशल है ।" ऐसी अनेक भ्रमणाओं में हम जी रहे हैं । जब तक स्व का तटस्थ निरीक्षण नहीं किया जायेगा, तब तक यह समझ में नहीं आयेगा । दूसरों के दोष दिखाई देंगे, परन्तु अपने दोष नहीं दिखाई देंगे ।
जब तक ऐसी भ्रान्तियों चूर-चूर नहीं होंगी, तब तक भगवान मिलने का प्रश्न ही नहीं है ।
अहंकार का विलीनीकरण ही समर्पण की अनिवार्य पूर्व शर्त है। उसके बिना आप चाहे जितने चिल्लायेंगे, आपकी भक्ति स्वीकार नहीं होगी । वह केवल अहंकार का व्यायाम बना रहेगा। * प्रभु दूध के प्याले हैं।
हम जल के प्याले हैं । पानी को दूध का रंग प्राप्त करना हो तो उसका संग करना पडता है । जिस क्षण पानी दूध में मिलता है, उसी क्षण वह पानी मिट कर दूध बन जाता है ।
"मुझे किसी में नहीं मिलना, मुझे तो अलग ही रहना है - यह मानकर पानी का गिलास यदि दूध के गिलास में मिलने के लिए तैयार ही नहीं हो तो ?
क्या हम भी ऐसे ही नहीं है ? भगवान को मिलते हैं सही, परन्तु क्या धुलते-मिलते हैं ? मिलना एक बात है, धुलना-मिलना दूसरी बात है।
पानी यदि दूध का रंग प्राप्त करना चाहे तो उसे दूध में मिल (३२२ W o memes
00 कहे कलापूर्णसूरि - २