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चारित्र के लिए चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम चाहिये, उस प्रकार जयणा के पालन के लिए जयणावरणीय कर्म का क्षयोपशम चाहिये । ऐसा भी होता है कि चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम हो चुका हो, परन्तु जयणावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं हुआ हो ।
जयणावरणीय, अध्यवसायावरणीय आदि नये लगते शब्दों का प्रयोग भगवती में हो चुका है ।
जयणावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जयणा में उल्लास आता है । अध्यवसायावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अध्यवसाय में उल्लास आता है ।
भगवती सूत्र, नौवां शतक, ३१वां उद्देशा, पृष्ठ ४३४ भगवान का स्मरण भी विघ्नों की वेलके लिए कुल्हाडी
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स्वरूप है ।
हृदय में भगवान का आदर आ गया तो समझ लो आपके पास निधान आ गया ।
इसीलिए भक्त के लिए भगवान ही निधान है ।
भगवत्सन्निधानमेव निधानम् ।
ताहरु ध्यान ते समकित रूप,
तेहि ज ज्ञान ने चारित्र तेह छेजी ।
प्रभु का ध्यान ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप है ।
प्रभु हमें दूर प्रतीत होते है । भक्त को दूर नहीं लगता यशोविजयजी महाराज का कथन है कि 'पण मुझ नवि भय हाथो हाथे, तारे ते छे साथे रे । " चाहे जितनी आंधी आये, मेरी तपजप की जीवन- नैया चाहे जितनी डांवाडोल हो, परन्तु मुझे तनिक भी भय नहीं है ।
तारणाहार प्रभु मेरे साथ ही हैं, मेरे हाथ में ही हैं, मेरे हृदय में ही है ।
क्या ये शब्द समझ में आते हैं ?
रहस्यमय ऐसी पंक्तियों हमारे समक्ष होते हुए भी हमारे हृदय पर कोई प्रभाव नहीं पडता, क्योंकि इसके लिए भी पात्रता चाहिये,
( कहे कलापूर्णसूरि २www
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