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विश्वास नहीं है ? कभी वस्त्रों के बिना रहना पड़ा है ?
गृहस्थ धनराशि एकत्रित करते ही रहते हैं, आवश्यकता नहीं हो तो भी एकत्रित करते ही रहते हैं, उस प्रकार हमें भी प्राप्त होती वस्तुएं एकत्रित करते ही रहना है ? तो गृहस्थ एवं साधु में अन्तर कहां रहा ?
याद रखें - स्पृहा दुःख है । निःस्पृहता महासुख है ।
सुख एवं दुःख की यह संक्षिप्त व्याख्या दृष्टि के समक्ष रखकर जियें तो जीवन कितना सुन्दर बन जाये ?
अकेले फुट की भक्ति में हम जा भी कैसे सकते हैं ?
("पूज्यश्री की बात सबके कानों में पड़ें अतः नूतन आचार्यश्री ने खड़े होकर कहा ।")
ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां इतनी संख्या में हम रह सकें । इसीलिए पूज्यश्री ने यह स्थान पसन्द किया है ।
ऐसी उत्तम वाचनाओं के द्वारा जीवन शुद्ध एवं शुभ बनें, अतः यहां चातुर्मास रखा है। ___अपनी छोटी-बड़ी भूलों का प्रभाव छोटों पर नहीं, बड़ों पर ही पड़ता है । नाम तो बड़ों का ही आता है ।
हमने पूज्यश्री को कहा - 'आप जो कुछ भी कहना चाहते हों वह वाचना में ही कहें । सभी विनीत है, अवश्य मानेंगे ।
अधिक कुछ न कर सकें तो कम से कम इतना करो - जो यह कह कर जाते हों कि "आज आम की या रस की भक्ति है ।" वहां तो जाना ही नहीं ।
चातुर्मास के निमित्त अन्य वस्तुएं भी वहोराने के लिए गृहस्थ आने वाले हैं ।
तो जितनी आवश्यकता हो वह यहां पूज्यश्री को बता देना । यहां शर्म रखने की जरुरत नहीं । पिता के पास पुत्रियों को लज्जा रखने की आवश्यकता नहीं होती ।।
पूज्यश्री की इस टकोर का आप अच्छा प्रतिभाव देंगे ऐसा विश्वास है ।
[कहे कलापूर्णसूरि - २00oooooooooooooooooo ३१७)