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बढ़ा ? जितना आनन्द बढ़ता जाता हो, उतने प्रमाण में कर्म-निर्जरा हुई मानें । यह आनन्द समताजन्य होना चाहिये । ममताजन्य मलिन आनन्द की यहां बात नहीं है ।
* साधु के लिए अशन-पान दो ही पर्याप्त होते हैं। खादिमस्वादिम की साधु को क्या आवश्यकता ? उसमें भी साधु की भक्ति के नाम पर ही चलता हो वहां हम जा भी कैसे सकते हैं ? जायें तो जिन-वचनों का आदर रहा ही कहां ?
__यहां अनुकूलता बहुत है । अनुकूलता पतन का मार्ग है । पू. कनकसूरिजी महाराज इसीलिए कहते थे - ‘पालीताणा में अधिक रहने जैसा नहीं है । यात्रा करके रवाना हो जाना चाहिये ।
दोषपूर्ण गोचरी आती हो, जिसका परिहार प्रायः असम्भव लगता हो, तो कम से कम त्याग तो होना चाहिये । फलों आदि का त्याग तो किया जा सकता है न ? पू. प्रेमसूरिजी महाराज जैसे को तो दीक्षा के दिन से ही जीवनभर फलों का त्याग था ।
बीस वर्ष पूर्व तो हमारे ये दो महात्मा गोचरी के लिए ठेठ गांव में जाते थे ।
कोई भक्ति के लिए आये और महात्माओं की लाइन लगे ? कैसा बेहुदा दृश्य ? महात्मा तो ऐसे कहते हैं - 'हमें आवश्यकता नहीं है । वर्तमान जोग !'
मेरी ये बातें सुनाई देती हैं न? अन्यथा लोग कहेंगे - 'वाचना तो बहुत सुनते हैं, परन्तु आचरण में कुछ भी नहीं है । गृहस्थों को हम कहते हैं -
'अन्य-स्थाने कृतं पापं, तीर्थस्थाने विमुच्यते ।
तीर्थस्थाने कृतं पापं, वज्रलेपो भविष्यति ॥ क्या यह बात हम पर लागू नहीं पडती ?
साधु को किसकी आवश्यकता है ? आत्म लाभ की अपेक्षा दूसरा कौन सा बडा लाभ है ? जितना आप त्याग करेंगे, वस्तुएं आपके पीछे भागेंगी । जितनी स्पृहा करेंगे, उतनी वस्तुएं आपसे दूर भागेंगी।
संयम पर तनिक तो भरोसा रखो । संयम में उपकारी वस्तु की जब-जब आवश्यकता पड़ेगी, तब मिल ही जायेगी। क्या आपको (३१६ 800
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कहे कलापूर्णसूरि - २