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नहीं हो तो 'ज्ञानसार' जैसी उत्कृष्ट रचना होना सम्भव ही नहीं । उनकी ‘ज्ञानसार' जैसी कृति से ही उनका हृदय कैसा था, यह समझ में आता है ।
इसीलिए ऐसे ग्रन्थ (ज्ञानसार, इन्द्रिय पराजय शतक, वैराग्य शतक, सिन्दूर प्रकरण आदि) हमें हमारे पूज्य आचार्य भगवन् कण्ठस्थ कराये थे, क्योंकि वैराग्य से भावित बना हृदय ही आराधक बन सकेगा ।
पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. कहते थे 'योगशास्त्र' के चार प्रकाश एवं 'अध्यात्मसार' या पढें । 'ज्ञानसार' निश्चय प्रधान है ।
'ज्ञानसार' से पूर्व ग्रन्थ कण्ठस्थ करें
व्यवहार में पारंगत होने के बाद ही निश्चय में प्रवेश करना है । तालाब को पार करने में निष्णात बनने के बाद ही समुद्र पार किया जा सकता है । सीधे ही निश्चय प्रधान ग्रन्थ पढ़ने लगोगे तो उन्मार्ग पर चले जाओगे । निश्चय नय प्रमादी व्यक्ति को अत्यन्त ही प्रिय लगता हैं । ऐसे व्यक्ति निश्चय नय के द्वारा प्रमाद का पोषण ही करेंगे । वे तप आदि से दूर ही रहेंगे ।
ऐसे मनुष्यों के लिए शास्त्र शस्त्र बन जायेंगे । कानजी मत में ऐसा ही हो गया है । वे निश्चय - प्रधान समयसार ग्रन्थ लेकर बैठ गये ।
ज्ञानसार - इन्द्रियजयाष्टक में कहा है * 'बेचारे मूढ मनुष्य पहाड की पीली मिट्टी को स्वर्ण समझ कर उसके पीछे दौड़ते हैं, परन्तु अनादि अनन्त ज्ञान - धन जो सदा भीतर ही पड़ा है, उसके समक्ष देखते नहीं हैं ।
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व्यक्ति को पता लग जाये कि घर में ही खजाना गड़ा हुआ है, तो क्या वह बैठा रहेगा ? या कुदाली लेकर खोदने लग जायेगा ? हमारे भीतर अनन्त ऐश्वर्य भरा हुआ है, भीतर परमात्मा बैठे हैं, यह जानकर भी हम निष्क्रिय बैठे हैं ।
हमारे अनन्त खजाने को अनन्त कर्म-वर्गणाऐं ढक कर बैठी हैं । अतः हम उस खजाने को देख नहीं सकते, देख तो नहीं सकते परन्तु खजाना है, ऐसी श्रद्धा भी नहीं कर सकते । जिन्होंने 'ज्ञानसार' कण्ठस्थ किया हुआ हो उन सबको विशेष कहे कलापूर्णसूरि २
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