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________________ सूचना है कि यह ग्रन्थ अन्त तक कण्ठस्थ रखना । जब आप साधना के मार्ग में प्रवेश करेंगे तब इस ग्रन्थ में से अपूर्व खजाना प्राप्त होगा; साधना के लिए मार्ग-दर्शन मिलता रहेगा । जितना ज्ञान का अंकुश सुदृढ़ होगा, उतना इन्द्रियो का नियन्त्रण सुदृढ़ होगा । ज्ञान को सुदृढ़ बनाने के लिए भक्ति को सुदृढ़ बनायें । भक्ति जितनी तीव्र होगी, ज्ञान उतना ही विशुद्ध बनेगा । नाम लेते ही भगवान याद आयें, हृदय गद्गद् हो जाये उतनी भक्ति को भावित बनायें । "नाम ग्रहंतां आवी मिले, मन भीतर भगवान..." __ मानविजयजी के ये उद्गार हमारे उद्गार भी बन जायें, इतनी हद तक हृदय में भक्ति को प्रतिष्ठित करें । देह को पंख मिलें और साक्षात् सीमंधर स्वामी को हम मिल सकें या मन की आंखे मिलें तो मिल सकें, ऐसा होता नहीं है। भगवान को मिलने के इस समय दो ही माध्यम है - भगवान का नाम और भगवान की प्रतिमा । आप पांच परमेष्ठियों के प्रति अथाग प्रेम करना । उनका प्रेम अपनी पांचो इन्द्रियों की कामना तोड डालेगा । पांच इन्द्रियों के शब्द आदि पांच विषय का पांच परमेष्ठियों के द्वारा ऊर्वीकरण हो सकता है । अरिहन्त की वाणी से शब्द अरूपी सिद्धों के रूप से रूप, आचार्यों की आचार-सुरभि से गन्ध, उपाध्यायों के ज्ञान-रस से रस और साधु भगवन् के चरण-स्पर्श से स्पर्श का ऊर्वीकरण होगा । चिन्तन के सात फल वैराग्य, कर्मक्षय, विशुद्ध ज्ञान, चारित्र के परिणाम, स्थिरता, । आयुष्य, बोधि प्राप्ति । ३०८gaonomonamoooooooooo कहे
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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