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________________ संसार कोई बाहर की वस्तु नहीं है, वह हमारे भीतर ही है। राग-द्वेष, कषाय आदि ही संसार हैं, जो हमारे भीतर ही हैं । राग, द्वेष, कषाय आदि मोह रूपी बादशाह के बहादुर सेनापति हैं । मोह सीधा लड़ने नहीं आता । वह अपने सेनापतियों को भेजता रहता है । अत्यन्त कटोकटी के समय ही वह युद्ध के मैदान में उतरता है। * कषाय ध्रुवोदयी है। अवश्य उदय में आने वाली ध्रुवोदयी कहलाती है। ये कषाय नित्य संतप्त करने वाले शत्रु हैं । आज इस समय भी उनका आक्रमण चालु है । उनके समक्ष निरन्तर जागृत रहे बिना विजय प्राप्त नहीं हो सकती । चार कषायों को नाथने के लिए मैत्री आदि चार भावनाएं क्रोध को जीतने के लिए मैत्री भावना । मान को जीतने के लिए प्रमोद भावना । माया को जीतने के लिए करुणा भावना । लोभ को जीतने के लिए माध्यस्थ भावना भानी पड़ेगी । वैर, द्वेष, क्रोध, गुस्सा आदि क्रोध के पर्यायवाची शब्द ही हैं । इनके आने पर मैत्री का तार टूट जाता है । सोचो - यदि ये चार कषाय नहीं होते तो यह संसार कैसा होता? क्या सुखमय होता ? मैं कहता हूं कि कषाय नहीं होते तो संसार ही नहीं होता । कषायों से मुक्त हुए अर्थात् संसार से मुक्त हुए । 'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ।' कषायों से जितने अंशों में मुक्त होते जायें, उतने अंशो में हमें जीवन्मुक्ति के सुख की अनुभूति होती जाती है ॥ कषाय-ग्रस्त व्यक्ति को चारों ओर निराशा, हताशा आदि प्रतीत होती है । जीवन-मुक्त आत्मा को चारों ओर आनन्द तथा प्रसन्नता ही प्रतीत होती है । [कहे कलापूर्णसूरि - २0000000000000000000 ३०३)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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