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पांच समितियों हमें शुभ प्रवृत्ति में जोड़ती हैं ।
तीन गुप्तियों हमें प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों में जोड़ती हैं । यद्यपि वैसे गुप्ति निवृत्ति प्रधान हैं, फिर भी शुभ-प्रवृत्ति सर्वथा निषिद्ध नहीं है ।
गुप्ति का अभ्यास अर्थात् ध्यान का अभ्यास मन आदि दण्ड का अभ्यास अर्थात् दुर्ध्यान का अभ्यास ।
समाधि-मृत्यु के लिए आराधक बनना पड़ेगा । आराधक बनने के लिए यह सब करना पड़ेगा ।
यह सब कठिन तो है, परन्तु यदि भव-सागर पार करना हो तो यह करना ही पड़ेगा । बाकी, अनुकूलता की खोज में ही जीवन पूर्ण करना हो तो आपकी इच्छा ! परन्तु एक बात कह देता हूं -
अनुकूलताओं का उपभोग करने के लिए तो हम यहां नहीं आये । अनुकूलताएँ तो घर पर बहुत थी ।
मन को अशुभ बनानेवाले, उसे दण्ड रूप बनाने वाले रागद्वेष ही है । इसीलिए प्रथम राग-द्वेष जीतने की बात कही है ।
राग-द्वेष के आवेश से ग्रस्त मन जो कुछ भी सोचेगा वह मनोदण्ड बनेगा । जो कुछ भी वचन निकलेंगे वे वचन-दण्ड बनेंगे, जो कोई भी काया आचरण करेगी, वह काया-दण्ड बनेगी ।
भोट, गधा, ठोठ आदि शब्दों का प्रयोग करते समय कभी ध्यान आता है कि यह वचन दण्ड हैं ?
___ "तू कहां सूली पर चढ़ी थी ?" "तेरी क्या कलाइयों कट गई थी ?" ऐसा बोलनेवाले को भवान्तर में सूली पर चढ़ना पड़ा था और दूसरे के हाथ कट गये थे । यह दृष्टान्त यदि हम जानते हों तो वचन-दण्ड का प्रयोग कैसे कर सकते हैं ?
ऐसे प्रभु का शासन मिलने के बाद भी मन-वचन-काया की गर्हित प्रवृत्ति चलती रही तो हमारा कब ठिकाना पडेगा ?
___हम दूसरों को सुधारने के लिए सतत प्रवृत्त रहते हैं, परन्तु स्वयं पर तनिक भी ध्यान नहीं देते । मैं उपदेश ही देता रहूं और मेरा जीवन सर्वथा कोरा हो तो मेरा जीवन वास्तव में दयनीय है ।
क्या यह मन दुष्ट ध्यान के लिए मिला है ?
क्या ये वचन दुष्ट वचनों का प्रयोग करने के लिए मिले हैं ? (कहे कलापूर्णसूरि - २00omoooooooooooooo ३०१)