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चारित्र-गुण को रोकने वाले कषाय हैं ।।
इसीलिए साधु का नाम 'क्षमाश्रमण' कहा गया है, शीलश्रमण अथवा नम्रता-श्रमण नहीं । क्रोध कषाय नष्ट होने से उत्पन्न होने वाली क्षमा ही साधु का आभूषण है ।
प्रश्न - अधिक खतरनाक कौन है, राग या द्वेष ?
उत्तर - अपेक्षा से द्वेष खतरनाक है । यदि राग को प्रभु के प्रेम में मोड़ दो तो काम हो जाये ।
द्वेष में ऐसा नहीं हो सकता और द्वेष विध्वंसक है।
राग को वीतराग के राग में रूपान्तरित कर लें तो वह मुक्ति का मार्ग बन सकता है, परन्तु द्वेष का रूपान्तर करके उसे मुक्ति मार्ग नहीं बनाया जा सकता ।
राग प्रभु के प्रति रखा जा सकता है, समस्त जीवों के प्रति रखा जा सकता है, परन्तु द्वेष तो किसी के प्रति भी नहीं रखा जा सकता । राग का व्याप बढ़ा कर उसे प्रशस्त किया जा सकता है । द्वेष में यह संभव नहीं है।
प्रभु का राग मोक्ष प्रदान कर सकता है, परन्तु किसके प्रति किया हुआ द्वेष मोक्ष प्रदान कर सकता है ?
प्रभु के प्रति राग हो तो ही उनके साथ एकता हो सकती है, परन्तु राग ही न हो तो ?
राग को जीतने के लिए अनित्य आदि १२ भावनाएं हैं । द्वेष को जीतने के लिए मैत्री आदि चार भावनाएं हैं ।
यह सब हम जानते हैं, परन्तु समय आने पर हम प्रयास नहीं करते । जो सही समय पर काम न आये, वह सीखा हुआ क्या काम का ? सही समय हट जाये वह खोपडी किस काम की ?
महापुरुषों का कथन है कि यदि भावनारूपी अनुपान का आपने प्रयोग नहीं किया तो धर्मरूपी औषधि कुछ भी लाभ नहीं करेगी ।
* मन-वचन-काया के योगों को यदि अशुभ में जोड़ो तो दण्डरूप बनते हैं, यदि उन्हें शुभ में जोड़ो तो इनाम दिलायेगी । मन-दण्ड आदि को जीतने के लिए मनोगुप्ति आदि की आवश्यकता होगी । (३०० 6600 6600 कहे कलापूर्णसूरि - २)