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रूप हैं । ये बन्धन यदि टूट गये तो संसार - वृक्ष धराशायी हुआ समझें ।
* कर्म चेतना
कर्म फल चेतना ज्ञान चेतना
इन तीन चेतनाओं में ज्ञान चेतना राग-द्वेष आदि दोषों से पूर्णतया पर है | ज्ञान- चेतना तो शुद्ध स्फटिक तुल्य है । रागद्वेष के लाल-काले पर्दे से स्फटिक तुल्य जीव लाल अथवा काला प्रतीत होता है, रागी -द्वेषी प्रतीत होता है ।
ज्ञान- चेतना में स्थिर बनना, कषायों के अभाव की स्थिति में लीन बनना ही धर्म-साधना का शिखर है । हमें उस शिखर पर आरूढ होना हैं ।
कषायों को दूर करने के लिए ही हमारी साधना हैं ।
संज्वलन कषाय को दूर करने के लिए राइय देवसिय, प्रत्याख्यानी कषाय को दूर करने के लिए पक्खी, अप्रत्याख्यानी कषाय को दूर करने के लिए चौमासी और अनन्तानुबंधी कषाय को दूर करने के लिए संवत्सरी प्रतिक्रमण करने चाहिये, जो उनकी समय मर्यादा पर से ज्ञात होगा ।
कषाय संक्लेश की अवस्था है । संक्लिष्ट चित्त के समय हमारी चेतना धुंधली होती है, जिसमें भगवान का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता ।
प्रभु का प्रतिबिम्ब मानस पटल पर उतारना हो तो उसे निर्मल बनाना ही पड़ेगा । कषायों के ह्रास से ही चित्त निर्मल बनता है । चारित्र क्या है ?
'अकसायं खु चारित्तं, कसाय सहिओ न मुणी होइ ।' अकषाय ही चारित्र है । मुनि कषाय- युक्त नहीं हो सकते । यदि हो तो सच्चे मुनि नहीं कहे जायेंगे ।
ज्यों ज्यों कषायों की मन्दता होती जाती है, त्यों त्यों आत्मा का सुख बढ़ता जाता है । बारह महिनों के पर्याय वाले साधु अनुत्तर देव के सुख से बढ़ जाते हैं, जिसका कारण कषायों का होने वाला ह्रास है ।
कहे कलापूर्णसूरि २wwwwwwwwww २९९
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