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प्रभु ध्यान में लीनता, पदमपर-कच्छ
२५-५-२०००, गुरुवार ज्ये. कृष्णा-७ : पालीताणा
* एक बार धोने से वस्त्र स्वच्छ नहीं हो तो आप उन्हें बार-बार धोते हैं । उस प्रकार आत्म-शुद्धि के लिए यहां बारबार यात्रा करनी है ।।
वस्त्रों के दाग अच्छे नहीं लगते, (यद्यपि मलिन वस्त्र तो साधु का भूषण है ।) परन्तु आत्मा पर लगे हुए राग-द्वेष दाग हैं, ऐसा प्रतीत नहीं होता, इनके प्रति घृणा भी नहीं होती ।
प्रिय-अप्रिय पर घृणा होनी चाहिये, जो होती नहीं है, यही बड़ी करुणता है ।
राग-द्वेष को कमजोर किये बिना आप मृत्यु के समय समाधि प्राप्त कर ही नहीं सकते । मृत्यु के समय यदि किसी के प्रति वैर की गांठ होगी, कहीं प्रगाढ आसक्ति होगी तो आप समाधिमृत्यु प्राप्त नहीं कर सकोगे ।
उपमितिकार ने राग को सिंह की और द्वेष को हाथी की उपमा दी है । पांच इन्द्रिया राग की खास दासिया हैं ।
राग-द्वेष में से ही संसार के सभी पापों का जन्म होता है। "दोहिं बंधणेहिं राग-बंधणेणं दोस-बंधणेणं ।" राग-द्वेष स्वयं बंधन
[२९८ 80oooooooooomnamon कहे कलापूर्णसूरि - २)