________________
* असंग अनुष्ठान तक पहुंचानेवाला प्रीति अनुष्ठान है ।
अनादिकाल से हमारी प्रीति शरीर आदि पर है । अब उस प्रीति को प्रभु की ओर उन्मुख करनी है ।
* समस्त जीवों को आत्मतुल्य देखना प्रेम का चिह्न है। पूर्ण प्रभु सबको पूर्ण रूप में देख रहे हैं । दूसरे को पूर्ण रूप में देखना प्रेम का चिह्न है । आत्म तुल्य दर्शन प्रेम का चिह्न है।
हम पूर्ण नहीं हैं, परन्तु आत्मसमदर्शन कर सकते हैं, चाहे पूर्ण रूप से नहीं देख सकें ।
* नूतन शिष्य आदि परिवार अपना बाह्य जीवन देखकर ही सीखने वाला है। अतः अपने समान हम उन्हें बनाना चाहते हैं तो वैसा जीवन जीना प्रारम्भ करना चाहिये ।
* 'आत्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति स पश्यति ।' . जो आत्मतुल्य दृष्टि से देखता है, वही सच्चे अर्थ में देखता है। दूसरे व्यक्ति तो आंखें होते हुए भी अंधे हैं, ऐसा अजैन शास्त्रों में उल्लेख है । इस सन्दर्भ में हम देखनेवाले हैं या अंधे हैं ?
* व्याख्यान का सर्व प्रथम उत्तरदायित्व वि. संवत २०१७२०१८ में जामनगर में आया था । उस समय हम पांच ठाणे थे । अध्ययन हेतु वहां रहे थे । तब व्याख्यान का प्रसंग आ पड़ा । मैंने निश्चय किया था कि मेरी जो इच्छा होगी वह श्रोताओं को सुनाऊंगा । मुझे 'अध्यात्मसार' अच्छा लगा । उसके अधिकारों पर मैंने व्याख्यान प्रारम्भ किया । कथा के लिए 'कुमारपाल चारित्र' पसन्द किया । वहां के प्रमुख ट्रस्टी प्रेमचंदभाई को व्याख्यान पसंद आया और हमें वहां चातुर्मास के लिए रोक लिया । वहाँ विमलनाथ भगवान थे ।
उसके बाद के चातुर्मास में 'वैराग्य कल्पलता' तथा 'उत्तराध्ययन' का पठन किया । सामने पक्ष वाले होने पर भी विनती की ।
आज अपना व्याख्यान केवल परलक्षी बन गया हो ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा है । जीवन बिल्कुल कोरा होगा तो व्याख्यान का कितना प्रभाव पड़ेगा ? सम्यक्त्व तो क्या, मित्रादृष्टि का भी ठिकाना (१२ 80 0 wwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - २)