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वडी दीक्षा प्रसंग, आधोई, वि.सं. २०२९
७-२-२०००, सोमवार माघ शुक्ला - २ : वांकी
* श्रमण प्रधान चतुर्विध संघ में हमारा नम्बर प्रथम है, अत: हमारा उत्तरदायित्व बढ़ जाता है । उस उत्तरदायित्व को निभाने के लिए हमारा जीवन उच्चतम होना चाहिये; त्यागमय, वैराग्यमय एवं जयणामय जीवन होना चाहिये, जिसे देख कर चौथे आरे का स्मरण हो आये ।
हमारा अहोभाग्य था कि हमें ऐसा जीवन देखने को मिला था । पूज्य कनकसूरिजी, पू. देवविजयजी, पू. रत्नाकरविजयजी आदि को देखते ही चौथा आरा याद आता ।
उपदेश की अपेक्षा जीवन का प्रभाव अधिक पड़ता है । नहीं बोलें तो भी आचरण अधिक प्रभावशाली होता है । पूज्य रामचन्द्रसूरिजी व्याख्यान देकर दीक्षितों को तैयार करते, परन्तु उसका पालन करते मौन रहकर पू. प्रेमसूरिजी ।
कहा जाता है कि एक हजार शब्दों के बराबर एक चित्र है । सचमुच तो यह कहना चाहिये कि हजार व्याख्यानों के बराबर एक चारित्र है | चारित्र भी सामने दृष्टिगोचर होने वाला चित्र . ही है न ? जीवित चित्र है ।
कहे कलापूर्णसूरि २
तळळ
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