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लगता है ? इस प्रकार समग्र चिन्तन पू.पं. भद्रंकरविजयजी के पास तीन वर्ष तक रहने से मिला ।।
* पाप नहीं करने का विचार प्रभु-कृपा से ही आता है। उनकी करुणा-दृष्टि के बिना यह सम्भव ही नहीं है।
चण्डकौशिक के भयंकर क्रोध का ऐसी करुणादृष्टि से ही शमन हुआ था । निरन्तर पन्द्रह दिन तक भगवान ने उस पर करुणा की वृष्टि की । स्वयं को मार डालने के लिए तत्पर बने हुए को सर्वथा शान्त करके गुफा में मुंह रखकर अनशन करता हुआ कर दिया । उन प्रभु की शक्ति कितनी ? करुणा कितनी ?
शुभ भाव को अशुभ भाव में ले जाने वाले अनेक निमित्त हैं और अनेक प्रसंग हैं; जबकि अशुभ भाव को शुभ भाव में ले जाने वाले निमित्त विरल ही हैं । * राग में मांगना है,
प्रेम में देना है। राग एवं प्रेम में यह मौलिक अन्तर है ।
* अपने स्वयं के लिए हम चाहे जितना करें, परन्तु बदले में हम कुछ भी मांगते नहीं है । उस प्रकार दूसरे के लिए हम चाहे जितना करें, परन्तु उसके बदले की इच्छा नहीं होनी चाहिये। स्व-पर का भेद दूर हो, समस्त जीवों में स्व के दर्शन हों तो ही यह सम्भव हो सकता है ।
* एक-दो वर्ष हमारे पास कोई अध्ययन करता हो और यदि कोई उसे खींच ले तो क्या विचार करना चाहिये ? आखिर तो भगवान के शासन को ही वह मिलनेवाला है ।
परन्तु खींचने वाले को यह दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिये । इस प्रकार खींचने वाला तो द्रोही कहलाता है; मायावी-दम्भी एवं प्रपंची कहलाता है ।
मेरे समान पतित, अपूर्ण एवं पापी को भी प्रभु यदि पूर्ण दृष्टि से देखते हों तो मुझे दूसरों के प्रति किस प्रकार की दृष्टि से देखना चाहिये ? यह हमारे लिए विचारणीय है ।
माता चाहे जितने मलिन बालक को भी स्नान आदि कराके, धुले वस्त्र पहनाकर पालती-पोसती है । भगवान, गुरु (कहे कलापूर्णसूरि - २000000000000000000 १३)