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संयम का आनन्द एवं शुभ ध्यान बढ़ता रहना चाहिये । यदि नहीं बढ़े तो समझें कि अपने हदय में सियार बैठा है ।
हृदय में सिंह को बिठाओ । सिंह कदापि पुरुषार्थ रहित नहीं होता । जो प्रारम्भ किये हुए कार्य को पूर्ण करने में पूर्ण उत्साह से जुट जाये वह सिंह है ।
* साधु का एक विशेषण है - 'परोवयार निरया' साधु सदा परोपकार में रत होता है ।
गृहस्थ हो तो धन आदि दान करके परोपकार करेगा । हम क्या करेंगे ? हम सम्यग् ज्ञान का दान करेंगे । समस्त जीवों को अभयदान देगें । यह महान् परोपकार है ।
जीवों को तनिक भी कष्ट देना परापकार है । साधु परापकार निरत न होकर, परोपकार-निरत होते हैं ।
'पउमाइनिर्दसणा' साधु कमल आदि के समान होते हैं ।
छद्मस्थ भगवान का वर्णन कल्पसूत्र में सुनते हैं न ? वह केवल पढ़ने सुनने के लिए नहीं है । हमें वैसे बनना है, ऐसा भाव लाना है ।
पू. कनकसूरिजी को सुनो तब ऐसा होता है न कि मुझे उनके समान बनना चाहिये ? ।
बोलो, मेरा यहां आना क्यों हुआ ?
एक बार पू. लब्धिसूरिजी महाराज का फलोदी में चातुर्मास था । मेरे दादा ससुर लक्ष्मीचंदजी ने रात को एक बार उन्हें पूछा था - 'इस काल में उत्कृष्ट संयमी कौन हैं ?'
उस समय पू. सागरजीमहाराज, पू. नेमिसूरिजी महाराज आदि अनेक महारथी थे, परन्तु अन्य किसी का नाम न देकर पू. लब्धिसूरिजी ने कच्छ वागड़वाले पू. कनकसूरिजी का नाम दिया था । उस समय उनके पुत्र मिश्रीमलजी (कमलविजयजी) भी उपस्थित थे । उन्हों ने मन में गांठ लगा ली कि दीक्षा ग्रहण करनी तो पू. कनकसूरिजी के पास ही लेनी ।
मेरी दीक्षा की भावना होने पर मैंने यह बात अपने ससुर मिश्रीमलजी को कही । ससुरजी ने कहा, 'दीक्षा तो मुझे भी अंगीकार (कहे कलापूर्णसूरि - २00000000mmmmmmmmmmmm २९३)