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करनी है, परन्तु पू. कनकसूरिजी के पास ही लूंगा । हम सभी साथ-साथ ही वहां दीक्षा अंगीकार करेंगे ।'
मैंने उनकी बात स्वीकार की ।
और मेरी दीक्षा यहां हुई ।
आज लगता है - भगवान ने मुझे कैसी उत्तम जगह पर जमाया ! कैसी उत्तम परम्परा मिली ?
पू. कनकसूरिजी की बात इसलिए करता हूं कि उनके आलम्बन से उनके समान गुण हमारे जीवन में आयें ।
* 'झाणज्झयण संगया ।' साधु सदा ध्यान अध्ययन में रत होता है।
चौबीस घंटो में ध्यान-अध्ययन हेतु स्थान कितना ? पहले बड़े आचार्य महाराज भी पत्र में लिखते थे -
"स्वाध्याय-ध्यानादि गुण सम्पन्न मुनिवर श्री" ऐसे विशेषण सार्थक कब होते हैं ?
हमें ध्यान-अध्ययन में रत रहकर उन विशेषणों को सार्थक करने हैं।
सूत्र, अर्थ, आलम्बन आदि में मन को रममाण करना है।
बालकों के समान मन उछल-कूद करने वाला ही है । उसे ऐसे आलम्बनों में जोड़ना है ।
* अपने गुणों का विनियोग न करें तो वे सानुबंध नहीं बनते, भवान्तर में वे साथ नहीं चलेंगे । सर्व प्रथम अपने जीवन में गुणों की सिद्धि प्राप्त करनी है । गुणों की सिद्धि हो जाने के पश्चात् ये गुण दूसरों में वितरित करने हैं, बैठे नहीं रहना है । दूसरों का विचार करना है । 'मुझे मिल गया अतः बस...' यह विचार स्वार्थमय है, जिसके हम सब शिकार हो चुके है । स्वार्थ के इस खड्डे में से बाहर निकलना हो तो 'परोवयार निरया' परोपकार-निरत बनना ही पड़ेगा ।
दूसरे को दी गई सहायता में से उत्पन्न होने वाला आनन्द एक बार चखेंगे तो जीवन में कदापि भूलोगे नहीं । स्वार्थ का आनन्द बहुत चखा, वास्तव में तो स्वार्थ में कोई आनन्द होता ही नहीं है, केवल आनन्द का भ्रम ही होता है। (२९४000000mmomoooooooo कहे कलापूर्णसूरि-२)