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________________ करते ही रहते है । जब तक मनन करने वाला मन नहीं मिले तब तक क्या मोक्ष मिलेगा ? (स्मरण रहे मनोवर्गणा पुद्गल है।) जीव का भी परस्पर उपकार है ही । केवल उस ओर अपनी दृष्टि जानी चाहिये । जड़ पुद्गल भी उपकार करते हों तो हम तो चेतन हैं । हम उपकार करें तो भी अभिमान नहीं करना है । उपकार करें तो ही ऋण-मुक्त हो सकते हैं। इसके अलावा अनन्त ऋण से मुक्त होने का अन्य कोई भी मार्ग नहीं है। इस मानव-जीवन में संयम जीवन अपनाकर ही हम ऋणमुक्त हो सकते हैं, क्योंकि इस संयम जीवन में किसी भी जीव को सताना नहीं है, पीड़ित नहीं करना है । ऐसा जीवन यहीं पर सम्भव है । किसी दिवालिये व्यक्ति को कोर्ट क्या दण्ड देती है ? हम भी दिवालिये हैं । कर्मसत्ता उसका बदला लिये बिना नहीं रहेगी । __ ऋण-मुक्ति की दृष्टि निरन्तर दृष्टि के समक्ष रखें तो कदापि अहंकार नहीं आयेगा, कृतघ्नता नहीं आती, ऋण से सिर निरन्तर झुका रहता है । * परहित के बिना आत्मा का हित संभव ही नहीं है । परोपकार के बिना स्व उपकार असंभव है । सचमुच तो परोपकार एवं स्वोपकार का भेद हमारी दृष्टि से है । ज्ञानी की दृष्टि से तो स्व-पर का कोई भेद ही नहीं है। हम प्रभु की पूजा करते हैं अतः 'पर' की पूजा नहीं करते, परन्तु 'परम' की पूजा करते हैं और वह 'परम' हमारे भीतर ही छिपा हुआ है। उनके समान न बनें तब तक प्रभु की पूजा करते रहना है । 'शीघ्र सिद्ध बनो' यही ज्ञानियों की आज्ञा है । मन्दिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा मूक रूप से निरन्तर यही सन्देश दे रही है। हम यह सन्देश सुनते नहीं हैं, यही कष्ट है । यदि यह सन्देश सुनाई दे तो प्रभु के अनन्त गुण याद आने लगते हैं, हृदय प्रभु के प्रति झुक जाता है । प्रभु कितने करुणासागर हैं ? वे कितने तारणहार बुद्धि वाले कहे कलापूर्णसूरि - २ 0000 0000000068866600 २६५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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