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________________ दो पट्टशिष्यों के साथ, मद्रास, वि.सं. २० १५-५-२०००, सोमवार वैशाख शुक्ला - १२ : पालीताणा ( पूज्यश्री गारियाधार गये थे, जिससे पालीताणा में पांच दिन तक वाचना बंध रही थी । ) * जिनागम, जिनमूर्त्ति को भगवत् तुल्य मानकर आराधना करें तो महाविदेह क्षेत्र के साधकों के समान ही हम बन सकते हैं । महाविदेह क्षेत्र में से भी कोई सभी मोक्ष में जाने वाले नहीं है । वहां भी सातवी नरक में जाने वाले हैं, अनन्त संसार में परिभ्रमण करनेवाले है । कौन से क्षेत्र में अपना जन्म हुआ है वह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितनी हमारी साधना महत्त्वपूर्ण है । * धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, पृथ्वी, पानी, वनस्पति, वायु आदि सब सतत उपकार कर रहे हैं । हम कदापि विचार नहीं करते कि मैं किसी पर उपकार कर रहा हूं या नहीं ? उपकार न करूं तो कुछ नहीं, अपकार तो नहीं कर रहा न ? अपकार करने का फल ही यह संसार - परिभ्रमण है । हमारा कार्य एक ही रहा है । : (हो सके इतना अपकार करना) पुद्गल भी मन, वचन, काया, श्वास आदि में सतत उपकार २६४ ॐ १७ कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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