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नहीं आती, पहले बीज बोना पड़ता है। योग धर्म साधना का अन्तिम फल है, परन्तु जिसकी योग साधना देखकर हमें आनन्द प्राप्त होता है, वह उसका बीज है।
'ज्ञानीना बहुमान थी रे ज्ञानतणुं बहुमान' यह तो आपने सुना है कि ज्यों ज्यों हम रटन करते रहेंगे, त्यों त्यों ज्ञान बढ़ेगा, परन्तु ये गुण कहां से आये ? ज्यों ज्यों आप पंच परमेष्ठी की, गुणी की सेवा करोगे, आदर-बहुमान करोगे, त्यों त्यों गुण आयेंगे ।
एक गुणी की सेवा करो, उसे नमस्कार करो तो जगत् में विद्यमान समस्त गुणवानों को नमस्कार होता है। उनकी सेवा का लाभ मिलता है। इसीलिए एक तीर्थंकर का अपमान करो तो, समस्त तीर्थंकरो का अपमान होता है। एक गुरु का अपमान हो तो सब गुरुओं का अपमान होता है । षट्काय में से एक काय की विराधना करो तो समस्त काय की विराधना होती है। भूतकाल में इस प्रकार अनेक कर्म बांधे, अब उन्हें छोड़ना है । तो भले ही अभी ज्ञान कम आये, परन्तु कम से कम बहुमान तो रख सकें न ?
गुणों का प्रवेश कराना हो तो उसका द्वार है - गुणों का बहुमान ।
* सम्यग्दर्शन भगवान को, गुरु को अपना मानता है । क्या हम प्रभु को, गुरु को अपना मानते हैं ? भगवान् मेरे नहीं, सबके है - क्या ऐसा आप मानते हैं ? यह वस्तु सबकी है। ऐसा कहें तो क्या आप में ममता जगेगी ? यह वस्तु मेरी है कहो तो कैसी ममता जगती है ?
* भगवान ने जिन्हें छोड़ा, उन्हें हमने पकड़ लिया है । भगवान ने जिन्हें छोड़े, उसका क्या हम अब संग्रह करें ?
जब कोई वस्तु लेने की इच्छा हो तब सोचना कि क्या मेरे प्रभु ने यह वस्तु ली थी ? जब क्रोध आनेवाला हो तब सोचना, कि क्या मेरे प्रभु ने क्रोध स्वीकार किया है या उसका परित्याग किया है ?
* ज्ञानी मुनि ने एक किसान को प्रतिज्ञा दी कि 'मन कहे वैसे नहीं करना ।' (२६२ 00ooooooooooooooo00 कहे कलापूर्णसूरि - २)