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मिलता, चाहे इस जन्म में प्राप्त करो या जब भी प्राप्त करो, परन्तु समता के बिना प्राप्त नहीं होगा ।
आगमों का ज्ञान होते हुए भी इन्द्रियों का रस हो तो भी समता प्राप्त नहीं होगी; परन्तु जिसने इन्द्रियो पर, कषायो पर एवं मन पर विजय प्राप्त की है, वैसे मुनि को संयम एवं मृत्यु दोनों में समाधि प्राप्त होगी । फिर तो उसकी मृत्यु भी महोत्सव रूप बन जाती है ।
दीक्षा अंगीकार करते समय महोत्सव क्यों किया था ? घर में से सर्वस्व त्याग कर त्याग-मार्ग पर जाते हैं इसलिए । तो मृत्यु के समय तो माया-ममता-उपकरण-परिवार एवं देह का भी परित्याग करना है । तो फिर क्यों न उस मृत्यु को महोत्सव रूप बनायें ?
मुनि स्वयं ही अपनी मृत्यु को महोत्सव बनाते हैं ।
* पांच इन्द्रियों की अनुकूलता में जिन्हें रस है, उन्हें जब घोर परिषह आते हैं तब उनमें व्याकुलता उत्पन्न होती है । आत्मा में घबराहट होती है, क्योंकि काया को कसी नहीं है । जीवन में उसका अभ्यास किये बिना वह वस्तु आत्मसात् नहीं होती । अन्य सब कुछ विस्मृत हो जाये, यहीं रह जाये परन्तु वासित हो चुके संस्कार साथ आयेंगे । इसीलिए उन संस्कारों को सुदृढ बनाने चाहिये ।
जिसको शरीर कसने का अभ्यास है, वह इससे इतना शक्तिशाली हो जाता है, कि मोहराजा के योद्धा आयें तो भी वह भयभीत न हो ।
* हममें जिन गुणों का अभाव हो, उन गुणों का अनुमोदन करने से वे गुण हमें प्राप्त हो जाते हैं । जिस व्यक्ति में जो गुण दिखाई दें, उनके प्रति बहुमान उत्पन्न हो तो वे गुण हममें आने लगते हैं ।
अब तक हमारे में दोष क्यों भर गये ? और वे दोष अभी तक क्यों नहीं जाते ? क्योंकि उनको आदर दिया, उनकी प्रशंसा की इसलिए ।
पहले गुण नहीं आते, गुणों की प्रशंसा आती है। पहले धर्म नहीं आता, धर्म की प्रशंसा आती है । खेत में उपज पहले (कहे कलापूर्णसूरि - २woooooooooooooooon २६१)