SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सीखा जा सके । तप के द्वारा शरीर को कसा नहीं है, ध्यान से मन को कसा नहीं है तो अन्तिम समय में वे तूफानी (शरारती) घोडे रूपी इन्द्रियों आत्मा को बाधा पहुंचाती हैं यह ला, वह ला; ऐसी इन्द्रियों की लालसा सताती है । - इन्द्रियों पर विजय और कषायों पर विजय दोनो परस्पर जुडे हुए हैं । इन्द्रियों पर विजय नहीं करो तो कषाय होंगे और कषाय होने पर संकल्प - विकल्प होंगे । उनका कार्य ही यह है । अतः अभी से सचेत हो जाना चाहिये । अपनी जांच हमें स्वयं करनी है । कोइ भी उत्तम वस्तु का रस ऐसा है कि मुझे उसके बिना नहीं चलेगा ? ऐसा आत्मा को कदापि पूछा है ? क्या प्रभु-भक्ति में रस है ? क्या आगमों में रस है । इतने स्तर तक पहुंचने के बाद भी अन्य हीन रस ( रुचि ) रखें तो दुर्गति में जाना पड़ता है । * हमारी आत्मा को विजय दिलाने वाला अन्य कोई नहीं है, अपना सत्त्व ही है । अन्य कुछ याद न रहे तो दुष्कृत गर्हा आदि तीन याद रखें । नित्य तीन बार दुष्कृत गर्हा आदि करने ही हैं । जब तक मन की व्याकुलता नहीं मिटे तब तक यह करना ही है । देह के तीन दोष हैं आत्मा के तीन दोष हैं इनका निवारण तीन से होता है वात, पित्त और कफ । राग, द्वेष और मोह । शरणागति, दुष्कृत गर्हा - और सुकृत- अनुमोदना । सुकृत अनुमोदना । दुष्कृत गर्दा । राग करें तो सुकृतों का करें द्वेष करें तो दोषों पर करें मोह करें तो भगवान का करें हरड़े, बहेड़ा एवं आमला के मिश्रण से त्रिफला रूप औषध बनता है, उस प्रकार इन तीनों के मिश्रण से भाव - औषध बनता है । शरणागति । - - * राग की अपेक्षा द्वेष अधिक खतरनाक है, क्योंकि द्वेष सदा जीवों पर ही होता है । जीव के प्रति द्वेष अन्ततोगत्वा प्रभु के प्रति द्वेष है । कहे कलापूर्णसूरि २ कwwwwwwww २५९
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy