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________________ वढवाण, वि.सं. २०४७ ८-५-२०००, सोमवार वैशाख शुक्ला - ५ : पालीताणा * हम संसारी जीव हैं अतः मृत्यु के बिना छुटकारा नहीं है । तो क्या कुमौत मरें ? कि समाधिपूर्वक मरें ? मृत्यु के समय जिसके साथ जन्म से सम्बन्ध है, उस देह तक का भी परित्याग करना होगा । पहले से ही ऐसा जीवन जीना चाहिये कि मृत्यु के समय समाधि प्राप्त हो । स्वयं अपनी ओर से कष्ट खड़े करने से मृत्यु के समय समाधि रह सकेगी । * चारित्र में दोष लगाना अर्थात् नाव में छेद करना । हमारा जहाज सागर में चल रहा है कि किनारे पहुंच गया ? सागर में तैरते जहाज में छेद पड़े तो स्वयं तो डूबेगा ही, परन्तु जहाज में जो बैठे हों वे सभी डूबते हैं । हम जितने दोष लगाते हैं उन्हें देखकर दूसरे भी वे दोष लगाते हैं । शास्त्रीय भाषा में उसे अनवस्था दोष कहते हैं, और आप यदि उत्तम प्रकार का चारित्र पालन करो तो उसे देखकर दूसरे भी वैसा पालन करें तो उत्तम परम्परा चले । हमें कैसे उत्तम गुरु मिले हैं कि उन्हें देखकर भी चारित्र २५८ WOOOOOळ ९ कहे कलापूर्णसूरि - २
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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