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आर्त ध्यान में एक ही विचार होता हैं - 'मेरी यह देह कैसे बचे ? डाक्टर बुलाओ, वैद्य बुलाओ, बोतल चढ़ाओ, गाडी में ले जाओ ।'
आज यह व्यवहार हो गया है । न करें तो लोग कहेंगे - 'महाराज को मार डाला ।'
इस सबसे बचने जैसा है । आर्त ध्यान से असमाधि । असमाधि से दुर्गति । एक बार दुर्गति में जाने के बाद कहां ठिकाना पड़ेगा ?
खाई में गिरा हुआ व्यक्ति कदाचित् बच सकता है, समुद्र में डूबता व्यक्ति कदाचित् किनारे पर आ सकता है, परन्तु दुर्गति की खाई में गिरे व्यक्ति के लिए सद्गति के शिखर पर पहुंचना कठिन है।
एक मृत्यु का विचार नित्य आये तो अप्रमत्त दशा आने में विलम्ब नहीं लगता ।
मुझे स्वयं को मृत्यु की निकटता का दो बार अनुभव हो चुका है - वि. संवत् २०१६ में और वि. संवत् २०५० में ।
तप, जप, ध्यान, सेवा, परिषह आदि के द्वारा जिसने अपनी आत्मा को अत्यन्त भावित बनाई है, उसके लिए समाधि सुलभ
आप दूसरे को समाधि दोगे तो आपको समाधि मिलेगी। इस समय गुरु को जब आपकी सेवा की विशेष आवश्यकता है, तब आप दूर रहो तो समाधि की कामना छोड़ दे ।
सेवा से समाधि मिलेगी। __ पू. गुरुदेव मणिविजयजी की आज्ञा मानकर नूतन मुनिश्री सिद्धि विजयजी (पू. सिद्धिसूरिजी - पू. बापजी महाराज) अन्य समुदाय के रत्नसागरजी महाराज की सेवा करने के लिए सूरत गये थे ।
उसी वर्ष पू.प. मणिविजयजी म. स्वर्गवासी हुए, परन्तु क्या सेवा निष्फल गई ? आगे जाकर वे पू. सिद्धिसूरिजी के रूप में सकल संघ में मान्य हुए ।
जिन-जिन ने सेवा की है, ऐसे महात्माओं को आप देखना, उन्हें कोई न कोई सेवा करने वाले मिल ही जाते होंगे । भले
(कहे कलापूर्णसूरि - २ 6000oooooooooooooo00 २५३)