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तप, स्वाध्याय, ध्यान, लोच, विहार आदि अनुष्ठान इस प्रकार बांधे हुए कर्मों की निर्जरा के लिए हैं, ऐसी अविहड, अटल श्रद्धा होनी चाहिये । वे पाप कर्म उदय में आयें तो तो समतापूर्वक भोगने ही हैं, परन्तु उदय में न आयें तो भी बलपूर्वक उदय में लाने हैं । कर्मों को बलपूर्वक उदय में लाना उदीरणा कहलाती है । लोच आदि से पाप की उदीरणा होती है ।
क्या कभी कर्मों का विचार आता है ? कितनेक व्यक्ति तो ऐसे मूढ़ होते हैं कि कर्म तो ठीक, मृत्यु भी याद नहीं आती। वे अपने बाप का राज्य हो उस प्रकार व्यवहार करते हैं - मानो मृत्यु आयेगी ही नहीं । मृत्यु के समय विद्वत्ता, प्रवचन, शिष्य, भक्त, ज्ञान-मन्दिर, पुस्तकें आदि कोई नहीं बचा सकेगा ।
इस लोक की हम कितनी चिन्ता करते हैं ? यह वस्तु चाहिये, वह वस्तु चाहिये, लाओ-लाओ-लाओ, परन्तु परलोक में जिस वस्तु की आवश्यकता है, उस वस्तु को कदापि याद की कि नहीं ?
साधु तो सदा मृत्यु के लिए तत्पर होते हैं । वे मृत्यु से डरते नहीं हैं । मौत को मुट्ठी में लेकर घूमते हैं ।
जिस योद्धा ने कदापि युद्ध की तैयारी नहीं की, घोड़े (अश्व) को प्रशिक्षण दिया नहीं, अश्व पर नियंत्रण किया नहीं, ऐसा व्यक्ति केवल अपनी या अश्व की शक्ति पर मुश्ताक रहकर लड़ने के लिए संग्राम भूमि में पहुंच जाये तो क्या वह युद्ध में विजयी हो सकेगा?
मृत्यु की पूर्व तैयारी के बिना हम मृत्युंजयी कैसे बन सकेंगे? मृत्युजंयी बनना अर्थात् समाधिपूर्वक मृत्यु का स्वागत करना ।
इस ग्रन्थ में लिखा है कि जिसने परिषह सहन नहीं किये, तप नहीं किया, नित्य तीनों समय खाने का ही कार्य किया है, वह साधु तीव्र वेदनाओं के बीच समाधि नहीं रख सकेगा । (गाथा ११९)
कष्ट पड़े तब विहार बन्द ।
कष्ट पड़े तब तप बन्द । ___ कष्ट पड़ने पर किसी भी कष्टकारी अनुष्ठान से दूर भागने वाले व्यक्ति इस पर विचार करें ।
मृत्यु के समय असमाधि हुई तो क्या होगा ? आर्त ध्यान ! (२५२ was manawwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - २