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________________ * ब्याज लेकर धन उधार देनेवाला व्यापारी दानी नहीं कहा जाता । तो किसी बदले की भावना से अन्य मुनियों का किया जाने वाला कार्य 'सेवा' किस प्रकार कहा जायेगा ? * हमारी आत्मा की हमें जितनी चिन्ता नहीं है उतनी, अरे ! उससे भी अधिक चिन्ता प्रभु को है । इसीलिए वे करुणासागर हैं । उनके द्वारा बताई गई क्रिया हृदयपूर्वक करें तो कल्याण होगा ही, मृत्यु में समाधि प्राप्त होगी ही । मृत्यु में समाधि की तो आवश्यकता है न ? क्या परलोक का भय लगता है ? अपनी क्रियाओं से तो यही लगता है कि मानो हम परलोक से पूर्णतः निरपेक्ष है ।। मृत्यु के समय वेदना, व्याधि आदि की पूर्ण सम्भावना है। यदि शरीर को बराबर कसा नहीं हो तो बड़े-बड़े आचार्य भी समाधि में थाप खा सकते हैं । भारी कर्म वाले को कदापि समाधि प्राप्त नहीं होती । ये सभी अनुष्ठान हमें लघु-कर्मी बनाने के लिए हैं । कर्मों का बन्धन तनिक भी नहीं हो, बंधे हुए कर्मों का क्षय होता रहे । ऐसी सावधानी भगवान के प्रत्येक अनुष्ठान में हैं । 'इरियावहियं' में हम क्या बोलते हैं ? तस्स उत्तरी करणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोही करणेणं विसल्ली करणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए । पाप कर्मों को नष्ट करने के लिए 'इरियावहियं' आदि सभी अनुष्ठान करने के हैं । * आज वर्षीतप के पारणे का दिन है। भगवान को ४०० दिनो तक अन्न-पानी नहीं मिले थे, उसमें कर्म कारण था । भगवान को भी कर्म नहीं छोड़ता तो हमें कैसे छोड़ेगा ? जिस रीति से कर्म बांधते हैं, उस रीति से उदय में आता है। खाने में अन्तराय करो तो खाने को नहीं मिलता । तप में अन्तराय करो तो तप नहीं कर सकते । दान में अन्तराय करो तो दान नहीं कर सकते । दीक्षा में अन्तराय करो तो दीक्षा नहीं मिलती । कहे कलापूर्णसूरि - २Booooooooooooooooooo २५१)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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