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चारित्र को पुष्ट बनाने वाले दर्शन-ज्ञान हैं, यह लगता रहे तो किसी विहित अनुष्ठान में हम प्रमाद नहीं कर सकते ।।
दूसरे के गुणों की प्रशंसा करना, प्रभु-भक्ति करना आदि दर्शनाचार हैं, अध्ययन करना आदि ज्ञानाचार है, समिति-गुप्ति आदि चारित्राचार हैं ।
* . हमारे समस्त अनुष्ठानों का समावेश दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र में हो जाता है । दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र में जिसका समावेश नहीं है वह साधु का आचार नहीं है, यह भी कहा जा सकता है ।
* अन्य धर्मावलम्बियों में विद्यमान गुणों की भी अनुमोदना करनी होती है तो साधुओं के गुणों की अनुमोदना करने के सम्बन्ध में कहना ही क्या ?
यदि हम अपनी आंखो के समक्ष विद्यमान गुणी व्यक्ति की अनुमोदना न करें तो अतिचार लगता है। अतिचार में क्या बोलते हैं ?
"संघमांहि गुणवंततणी अनुपबृंहणा कीधी ।" भगवान जैसे भगवान भी सुलसा, आनंद, कामदेव जैसे की प्रशंसा करते है तो हमें नहि करना चाहिये ?
पौषध पारते समय क्या बोलते हैं ? "जास पसंसइ भयवं दढवयत्तं महावीरो ।"
अनुमोदना मन, वचन, काया से हो सकती है । उपबृंहणा वचन से हो सकती है। यदि आप संघ में दिखाई देने वाले गुणी को धन्यवाद नहीं देते तो आप दोषी बनते हैं ।
यह विहित अनुष्ठान है । विहित अर्थात् भगवान द्वारा कथित । जिस अनुष्ठान को करते समय भगवान का स्मरण रहे, वह अनुष्ठान भी महान बन जाता है। भगवान के साथ जुड़ाव हो तो वह अनुष्ठान कमजोर कैसे होगा ? __कैसा अनुष्ठान ? कैसे सूत्र ? मेरे भगवान ने बताये हैं । __ ऐसे गद्गद् भाव से किये गये अनुष्ठान केवलज्ञान भी प्रदान कर सकते हैं। चाहे कचरा निकालने का अनुष्ठान हो या 'इरियावहियं' करने का अनुष्ठान हो । अइमुत्ताने इसी 'इरियावहियं' से केवलज्ञान प्राप्त किया था ।
(२५०6omooooooooooooo0 कहे कलापूर्णसूरि - २)